सुरेश सर्वेद
सरपंच श्रीकांत एक पैर से लंगड़े थे . उनकी मुख्य पोशाक चमड़े के काले जूते, बंगाली धोती थी। वे चलते तो जूतों से '' खट - खट '' की आवाज निकलती। मूंछें ऐंठी रहती। यही उनकी शान थी। चलते तो छाती तानकर जिसमें अभिमान की गठरी बंधी हुई होती। उनके चलने से धरती कांपने लग जाती थी फिर तो नौकरों का विसात ही क्या ? उनके जूतों की '' ठाप '' सुनते ही नौकर अपने - अपने कार्य में ऐसे रम जाते जैसे शिल्पकार तस्वीर में खो जाता है। वे जिसके पास से गुजरते, वह उन्हें सलामी अवश्य बजाता।
वे घर से निकलते ही राम राम, जय राम, नमस्कार जैसे संबोधन शब्द प्राप्त करने लगते । जिनमें से वे चलते - चलते ही कुछ लोगों को उत्तर दे पाते । जिसका अभिवादन के बदले अभिवादन नहीं मिलता, वह मनमसोस कर रह जाता। किसी में इतना साहस नहीं था कि अपना अपमान का प्रतिकार कर सके । इसका कारण वे संपन्न कृषक थे । नेतागिरी भी वे करते थे । कई नौकर उनके घर पल रहे थे। थाने के थानेदार से लेकर अनेक नेताओं का उनके घर आना - जाना होता था। यहां एक और व्यक्ति था - रामगोपाल। वह भी श्रीकांत से कम नहीं था। उसकी भी खेती किसानी थी। नेतागिरी भी वह करता था। अथार्त गांव में उन दोनों के अतिरिक्त प्रभावशाली तीसरा व्यक्ति कोई नहीं था । उन दोनों में अक्सर ठनी रहती। यही कारण था कि गांव का मजदूर भी दो भागों में बंट हुए थे। मजदूरों को भी उनके प्रतिव्दंदिता में मजा आता । एक से व्यवहार बिगड़ने के बाद मजदूर दूसरे के पास चला जाता । दोनों की अहमियत यह था कि वे जिसके विरूद्ध चाहे न्यायालय में अपराध पंजीबद्ध करा सकते थे। मगर उनके विरूद्ध जो भी जाने का साहस करता उसकी दुगर्ति निश्चित होती। यह भी संभव हो जाता कि जो भी उनके विरूद्ध अपराध दर्ज कराने जाता थाने में उसे ही बिठा दिया जाता और उसके विरूद्ध ही कानूनी कायर्वाही शुरू हो जाती। यही कारण था कि लोग उनके अत्याचार सह कर भी उनके विरूद्ध जाने का साहस नहीं कर पाते थे।
उन दिनों धान मिंजाई का कार्य चल रहा था। मजदूर रात भर दौरी हांकते और दिन भर धान ओसाते। उस दिन श्रीकांत खलिहान में आये। वे जिनके पास से निकले अभिवादन पाते गये। कुछ ही दूर जाकर उनके पैर ठहर गया। वहां पर सुमेर धान ओसा रहा था। वह श्रीकांत को देखे बगैर धान ओसा रहा था। श्रीकांत ने खांसा - खंखारा, आवाज सुनकर भी सुमेर अपने काम में व्यस्त रहा। यह तो श्रीकांत का अपमान था। एक अदना सा मजदूर उन्हें पास खड़े जानकर भी अनजान बना हुआ था। न दुआ, न सलाम। यह अपमान ही तो था। श्रीकांत तिलमिला गये। बौखला कर चीखे - सुमेर........?''
सुमेर धान ओसाता ही रहा। उसने न ही श्रीकांत की ओर देखा और न ही राम- राम कहा। यह तो सरासर अपमान था। पहले तो सुमेर दिन में दस बार हाथ जोड़ कर नमस्कार करता। वह इतना निडर हो चुका था कि श्रीकांत की ओर देखने की आवश्यकता तक महसूस नहीं किया। श्रीकांत को आज तक ऐसी स्िथति का सामना करना का अवसर नहीं मिला था। उनका जलना- भूनना जायज था। उन्होंने कहा- सुमेर,शाम को तुम अपना हिसाब कर लेना।''
सुमेर ने '' हां '' में सिर हिला दिया.
श्रीकांत आगे बढ़ने के बजाय जल भून कर वहीं से लौट गये। आराम कुसी र्में धंस कर क्रोध को शांत करने की कोशिश करने लगे।
संध्या हो चली थी। सुमेर, श्रीकांत के पास आया। श्रीकांत किताब पढ़ने मशगूल थे। उन्हें सुमेर के आगमन का अहसास हो चुका था। उन्होंंने किताब से नजरें हटा कर सुमेर पर टिकाया। कहा- सुमेर,तुम कल आकर अपना हिसाब कर लेना। मुझे तुम्हारा काम पसंद नहीं। अब तुम जा सकते हो।''
सुमेर अपना घर लौट गया।
रात में उसे देर तक नींद नहीं आयी। सोचता रहा कि आखिर मुझसे त्रुटि कहाँ पर हुई ? श्रीकांत को मेरा काम क्यों पसंद नहीं आया ? पूर्व में तो वे उसके कामों की खूब प्रशंसा किया करते थे। अचानक परिवर्तन क्यों ? वह जान चुका था कि उसने अभिवादन नहीं किया इसी का प्रतिशोध ले रहे हैं श्रीकांत। उसने मंथन किया कि क्या व्यक्ति के काम का वह मूल्य नहीं होता जो मूल्य चाटुकारिकता का है। क्या काम से बढ़कर चाटुकारिता हो चुकी है। नहीं, कदापि नहीं। काम का पूजा होता रहा है और होता रहेगा। इतना अवश्य है कि व्यक्ति चापलूस व्यक्ति को पसंद करते हैं। शायद लोगों को दिखावे से ही पसंद है क्योंकि चाटुकार व्यक्ति का काम सिर्फ चाटुकारिता ही होती है, काम से उसे कोई मतलब नहीं रहता।
दूसरे दिन सुबह सुमेर श्रीकांत के घर पहुंचा। उस क्षण सुमेर के मन में किसी भी प्रकार से मलाल नहीं था। उसे शिकायत भी नहीं थी। श्रीकांत चाय पी रहे थे। सुमेर को सामने देखकर कहा - सुबह - सुबह आ गये। कम से कम सूरज को तो चढ़ने देना था।''
- मैंने काम छोड़ दिया है, फिर सूरज उगने या डूबने का इंतजार क्यों ? मैंने काम किया है उसी की मजदूरी लेने आया हूं। कायदे के अनुसार अब बिना समय गंवाये मेरा हिसाब कर देना चाहिए।''
- आजकल खूब बात करने लगे हो सुमेर ।''
- यहां एक ही चीज की तो स्वतंत्रता है.हर व्यक्ति कह कर अपनी बात रखने स्वतंत्र है फिर मैंने गलती कहां पर किया।''
'' स्वतंत्रता '' शब्द से श्रीकांत तिलमिला गये। वे स्वतंत्रता के घोर विरोधी थे । उनकी मंशा यही रहती कि स्वतंत्रता सिर्फ उन्हें ही मिले और बाकी सब उनके गुलाम रहे। .पर क्या यह संभव था । कदापि नहीं..वे बिफर कर आवाज लगायी - रघु ... ऐ रघु .. सुन रहा है, नहीं बे...?''
दस बारह वर्ष का बालक सरपट दौड़ता। आया.श्रीकांत के तेवर चढ़े हुए थे। रघु एकटक श्रीकांत के मुंह को ताकता रहा। श्रीकांत उस पर टूट पड़े - टकटकी बांधे क्या देख रहा है ? कभी मेरी सूरत नहींं देखी है क्या बे ? स्साले सब निकम्में हो गये हैं। पता नहीं तुम लोग स्वयं को क्या समझते हो ? जहां पेट भरा कि भूल गये भोजन परोसने वाले को....।''
रघु घबराया था। वह श्रीकांत को ताकता ही रहा.वह समझ नहीं पा रहा था कि उसने यिा गलती कर डाली.उसने साहस एकत्रित कर पूछा - '' मगर मुझे करना क्या है ?''
- '' देवेश से पचास किलो धान निकलवा कर इसे दिलवा दो.....।''
दूसरे दिन से सुमेर रामगोपाल के घर काम पर जाने लगा.
सुमेर के परिवार में तीन ही सदस्य थे. एक सुमेर उसकी पत्नी और पुत्री अमृता . मजदूरी करने सुमेर और उसकी पत्नी ही जाते थे . अमृता लगभग सोलह - सत्रह वर्ष की थी.पर सुमेर उसे अन्य परिवार के लड़कियों की तरह काम पर नहीं भेजता था .
श्रीकांत सुमेर से बदला लेना चाहता था . श्रीकांत सुमेर को फंसाने षड़यंत्र रचने लगा . सुमेर ने हर बार अपने को बचा लिया . पर श्रीकांत हार मानने वाले नहीं था .
रामगोपाल सुमेर की ईमानदारी से खुश था . उसने एक दिन सुमेर को सामान खरीदने शहर जाने कहा तो सुमेर आश्चर्य में पड़ गया . क्योंकि रामगोपाल ने कभी किसी पर विश्वास ही नहीं किया.वह स्वयं शहर से सामान खरीद लाता था . रूपये स्वयं चुकाता था . पर आज उसने सुमेर को सामान खरीदने शहर जाने कहा तो आश्चर्य की ही बात थी . रामगोपाल सुमेर की भावना को समझ गया . उसने कहा - '' सुमेर , मैंने तुम्हें शहर से सामान खरीद लाने इसलिए कहा क्योंकि मुझे तुम्हारी ईमानदारी पर पूरा विश्वास हो गया है . मैं यह जान चुका हूं कि तुम रूपए देखकर भी अपना ईमान नहीं खोवोगे.''
रामगोपाल ने उसे सामान की सूची एवं रूपए दे दिया.सुमेर सामान लाने शहर चला गया.
इधर श्रीकांत समय के तलाश में था . उसने समय का लाभ उठा ही लिया.घिनौना कृत्य करके.
सुमेर दूसरे दिन सामान लेकर गांव आया . वह सामान रामगोपाल के घर रखकर जैसे ही अपने घर पहुंचा तो उसने देखा - कुछ महिलाएं उसके घर के सामने खड़ी है . वे आपस में कानाफूंसी कर रही हैं . उनमें से एक ने कहा - '' अमृता के पिता आ गये .''
- '' बेचारी कितनी सुंदर थी ? आदत व्यवहार सबमें . '' दूसरी महिला ने कहा .
- '' मगर उसने आत्महत्या क्यों की ...।''
'' आत्महत्या '' शब्द ने सुमेर के माथे को झनझना दिया . उसके चलते पैर ठहर सा गये . वह आगे बढ़ा . जैसे ही घर में प्रवेश किया . उसकी पत्नी उसे देख बिलख - बिलख कर रोने लगी . सामने सफेद कपड़े से लिपटी अमृता की लाश पड़ी थी . वह लाश के समीप पहुंचा . उसने अमृता को चीरनिन्द्रा में देखा . उसकी आंखों से आंसू छलक पड़े . वह दहाड़ मार कर रो पड़ा .
अमृता का बलात्कार हुआ था . उसने इसी सदमें से आत्महत्या कर ली थी . बलात्कारी कौन यह अज्ञात था पर सुमेर को रामगोपाल पर ही शक हो चुकी थी . कभी किसी पर विश्वास न करने वाले रामगोपाल ने उस पर विश्वास करके एक तरह से अपराधी बन गया था.हालांकि कुकर्म किसी और ने किया था पर सुमेर को तो रामगोपाल ही पुत्री के बलात्कारी दिख रहा था . उसे रामगोपाल से घृणा हो चुकी थी . वह मौके की तलाश में था और एक दिन उसने रामगोपाल की हत्या ही कर दी.
रामगोपाल के हत्या की जांच हुई . सुमेर ने सहज रूप से रामगोपाल की हत्या करना स्वीकार लिया . उसने कह दिया - '' इसने मेरी कन्या का बलात्कार किया . उसे आत्महत्या के लिया बाध्य किया इसलिए मैंने इसकी हत्या कर दी .''
सुमेर को पकड़ कर पुलिस ले गयी.उसका प्रकरण न्यायालय में पंजीबद्ध हुआ.कुछ दिनों बात श्रीकांत सुमेर को जमानत पर छुड़ा लाया.
श्रीकांत की यह चालाकी थी.सुमेर सत्य से अनभिज्ञ था.वह श्रीकांत के पैरों तले गिर गया.
श्रीकांत को सफलता मिल चुकी थी.उसने सुमेर को उठा लिया.कहा- अरे,इसमें पैर में गिरना क्यों ? आदमी ही तो आदमी का काम आता है न.एक मानव का जो कतर्व्य होता है मैने उसी का निवर्हन किया है.हूं..च ल अब ढ़ंग से रहना....।
सुमेर और उसकी पत्नी श्रीकांत के घर काम पर लग गये.
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