सुरेश सर्वेद
- माँ, मुझे तसमई खाना है। पुत्र की माँग सुनकर माँ असमंजस में पड़ गई। पुत्र की माँग ऐसी थी जिसकी पूर्ति चाहकर भी कर पाना माँ के लिए संभव नहीं था। गरीबी उस परिवार पर इतनी मेहरबान थी कि दो समय का भोजन मिल जाये इतना ही पर्याप्त था। अतिरिक्त व्यय की स्थिति जब भी पैदा हुई उसके लिए उसे बहुत ही मेहनत करनी पड़ी। अतिरिक्त व्यय की व्यवस्था के लिए तो उसे समय मिल जाया करता था पर यहाँ तो तत्कालिक व्यवस्था करने जैसी माँग पुत्र ने रखी थी।
माँ दो - तीन घरों में झाड़ू - बर्तन कर जीविका चलाती थी। अभाग्रस्त जीवन इतना व्याप्त था कि रुखी - सूखी खाकर पेट भरना होता था। पुत्र ने कभी कोई चीज की माँग नहीं की थी। माँ, पुत्र की माँग को कुचलना नहीं चाहती थी। उसने पुत्र को आश्वस्त किया - हाँ बेटा, आज शाम को तसमई बनाऊंगी। चटकारे लेकर पेटभर खाना।
माँ की विवशता - लाचारी पुत्र से छिपी नहीं थी। वह भलीभांति जानता था कि उसने जो माँग माँ से रखी है, उसकी पूर्ति कर पाना माँ के लिए संभव नहीं। इसके लिए दूध - शक्कर आवश्कता होती है। माँ जुगाड़ करेगी भी तो कैसे ? कहाँ से ?
संध्या का बेला था। माँ ने चूल्हा फंूकी। चांवल को एक पपीली में धोकर चढ़ा दी। बालक माँ की क्रिया देख रहा था। माँ कुछ - कुछ परेशान दिख रही थी। आग की आंच से चांवल उबलने लगा। वह पककर उफनने लगा। माँ का ध्यान बंटा हुआ था। पुत्र समझ रहा था - पुत्र और शक्कर नहीं भिड़ा पाने की माँ की पीड़ा। पुत्र ने करछुली ले ली। उसने माँ की पीड़ा को भीतर तक अनुभव किया। उसने करछुली चांवल पर चलाते हुए माँ का ध्यान अपनी ओर खींचा। कहा - माँ, तसमई का चांवल उफनने लगा है। देखो, कितना गाढ़ा दूध है। उफान से दूध गिर जायेगा। आग की तपन कम करो।
माँ का भटका मन वापस आया। उसने आग को कम करने चूल्हे से जलती लकड़ी खींची। पुत्र के हाथ से करछुली ली और चांवल पर चलाने लगी। माँ आश्चर्य में थी। वह समझ नहीं पा रही थी कि उसने जब पतीली में पानी और चांवल के अतिरिक्त कुछ नहीं डाला है पर पुत्र को उसमें दूध डलने की अनुभूति कैसी हुई। पुत्र ने माँ की दूविधा को पकड़ लिया। उसने कहा - देखो न माँ, दूध कितना गाढ़ा हो गया है। माँ आश्चर्य घोर आश्चर्य में करछुली चलायी जा रही थी। चांवल लगभग पक चुका था। माँ ने उसमें नमक डाला। पुत्र यह जाकर भी कि माँ ने नमक डाला है, कहा - माँ, अधिक शक्कर मत डालो। ज्यादा मीठी हो गई तो तसमई गले से नीचे नहीं उतरेगी।
माँ समझ गई कि पुत्र चांवल की पसिया को दूध एवं सफेद महीन नमक को शक्कर मान रहा है। वह गदगद हुई जा रही थी।
अब तसमई बनकर तैयार थी। उसने पुत्र को एक थाली में परोसी। पुत्र चटकारे लेकर तसमई खाने लगा। उसने कहा - र्मा, तसमई बहुत ही मीठी और लजिज है। दूध का स्वाद भी बहुत ही स्वादिष्ट है। आप भी खाइये न?
माँ भी एक थाली में ले ली। वह भी खाने लगी। माँ ने कहा - हाँ बेटा, तसमई बहुत ही स्वादिष्ट बनी है।
माँ और पुत्र दोनों जान रहे थे कि वे खिचड़ी खा रहे हैं पर उस खिचड़ी में तसमई के स्वाद की अनुभूति दोनों कर रहे थे। दोनों में संतुष्टि इतनी थी कि उन्हें लगा ही नहीं कि वे खिचड़ी खा रहे हैं ....।
- माँ, मुझे तसमई खाना है। पुत्र की माँग सुनकर माँ असमंजस में पड़ गई। पुत्र की माँग ऐसी थी जिसकी पूर्ति चाहकर भी कर पाना माँ के लिए संभव नहीं था। गरीबी उस परिवार पर इतनी मेहरबान थी कि दो समय का भोजन मिल जाये इतना ही पर्याप्त था। अतिरिक्त व्यय की स्थिति जब भी पैदा हुई उसके लिए उसे बहुत ही मेहनत करनी पड़ी। अतिरिक्त व्यय की व्यवस्था के लिए तो उसे समय मिल जाया करता था पर यहाँ तो तत्कालिक व्यवस्था करने जैसी माँग पुत्र ने रखी थी।
माँ दो - तीन घरों में झाड़ू - बर्तन कर जीविका चलाती थी। अभाग्रस्त जीवन इतना व्याप्त था कि रुखी - सूखी खाकर पेट भरना होता था। पुत्र ने कभी कोई चीज की माँग नहीं की थी। माँ, पुत्र की माँग को कुचलना नहीं चाहती थी। उसने पुत्र को आश्वस्त किया - हाँ बेटा, आज शाम को तसमई बनाऊंगी। चटकारे लेकर पेटभर खाना।
माँ की विवशता - लाचारी पुत्र से छिपी नहीं थी। वह भलीभांति जानता था कि उसने जो माँग माँ से रखी है, उसकी पूर्ति कर पाना माँ के लिए संभव नहीं। इसके लिए दूध - शक्कर आवश्कता होती है। माँ जुगाड़ करेगी भी तो कैसे ? कहाँ से ?
संध्या का बेला था। माँ ने चूल्हा फंूकी। चांवल को एक पपीली में धोकर चढ़ा दी। बालक माँ की क्रिया देख रहा था। माँ कुछ - कुछ परेशान दिख रही थी। आग की आंच से चांवल उबलने लगा। वह पककर उफनने लगा। माँ का ध्यान बंटा हुआ था। पुत्र समझ रहा था - पुत्र और शक्कर नहीं भिड़ा पाने की माँ की पीड़ा। पुत्र ने करछुली ले ली। उसने माँ की पीड़ा को भीतर तक अनुभव किया। उसने करछुली चांवल पर चलाते हुए माँ का ध्यान अपनी ओर खींचा। कहा - माँ, तसमई का चांवल उफनने लगा है। देखो, कितना गाढ़ा दूध है। उफान से दूध गिर जायेगा। आग की तपन कम करो।
माँ का भटका मन वापस आया। उसने आग को कम करने चूल्हे से जलती लकड़ी खींची। पुत्र के हाथ से करछुली ली और चांवल पर चलाने लगी। माँ आश्चर्य में थी। वह समझ नहीं पा रही थी कि उसने जब पतीली में पानी और चांवल के अतिरिक्त कुछ नहीं डाला है पर पुत्र को उसमें दूध डलने की अनुभूति कैसी हुई। पुत्र ने माँ की दूविधा को पकड़ लिया। उसने कहा - देखो न माँ, दूध कितना गाढ़ा हो गया है। माँ आश्चर्य घोर आश्चर्य में करछुली चलायी जा रही थी। चांवल लगभग पक चुका था। माँ ने उसमें नमक डाला। पुत्र यह जाकर भी कि माँ ने नमक डाला है, कहा - माँ, अधिक शक्कर मत डालो। ज्यादा मीठी हो गई तो तसमई गले से नीचे नहीं उतरेगी।
माँ समझ गई कि पुत्र चांवल की पसिया को दूध एवं सफेद महीन नमक को शक्कर मान रहा है। वह गदगद हुई जा रही थी।
अब तसमई बनकर तैयार थी। उसने पुत्र को एक थाली में परोसी। पुत्र चटकारे लेकर तसमई खाने लगा। उसने कहा - र्मा, तसमई बहुत ही मीठी और लजिज है। दूध का स्वाद भी बहुत ही स्वादिष्ट है। आप भी खाइये न?
माँ भी एक थाली में ले ली। वह भी खाने लगी। माँ ने कहा - हाँ बेटा, तसमई बहुत ही स्वादिष्ट बनी है।
माँ और पुत्र दोनों जान रहे थे कि वे खिचड़ी खा रहे हैं पर उस खिचड़ी में तसमई के स्वाद की अनुभूति दोनों कर रहे थे। दोनों में संतुष्टि इतनी थी कि उन्हें लगा ही नहीं कि वे खिचड़ी खा रहे हैं ....।
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