सोमवार, 18 जुलाई 2016

अधुरी कहानी

निजर्न और सूनसान स्थान को देखकर नहीं लगता था कि इधर कोई देवालय  होगा.य ह भी विश्वास करने योग्य  नहीं था कि इधर कोई मनुष्य  भी निवास कर सकता है.मगर विशालकाय  भवन के सामने जाकर हमारी गाड़ियां रूक गयी.हम गाड़ी से नीचे आये.विशालकाय  भवन की जीणर्-शीणर् क्स्थति को देखकर य ह स्पý हो गया था कि बरसों से इसके जीणोर्धार नहीं किया गया है.विशालकाय  भवन की अवस्था को अपलक निहार कर पत्नी की Òýि मुझ पर आ टिकी.मैंने पत्नी से कहा- आओ.....
पत्नी मेरे साथ च ल पड़ी.मेरी नजर अचानक पत्नी के हाथों पर गयी.मैंने कहा- तुम नारिय ल लेना भूल गयी...?
अचानक पत्नी को ध्यान आया कि हम देवालय  आये हैं देवताओं का दशर्न करने.कुछ क्षण तो वह समझ ही नहीं पा रही थी कि हम देवालय  जा रहें हैंया फिर ख·डहर में घूमने.संभवत: इसी सोच  विचार ने उसे गाड़ी में रखे नारिय ल और मिठाई को विस्मृत कर दिया था.
पत्नी वापस गाड़ी के पास गयी.उसमें से नारिय ल और मिठाई का डिबबा उठा लायी.मैंने पत्नी से कहा- तुम इतने गुमशुम यिों हो ?यिा तुम्हें य हां आना अच्छा नहीं लगा.
पत्नी ने कहा- नहीं तो.....।मगर मुझे एक बात समझ नहीं आयी कि इस देवालय  की स्थिति इतनी जीणर्-शीणर् है फिर इसके जीणोYधार का काम यिों नहीं कराया गया है?शाय द य हां कोई रहता भी नहीं होगा.
- ऐसी बात नहीं है.य हां पुजारी रहता है,अपने परिवार के साथ....।
- यिा....? पत्नी ने अविश्वास मिश्रित आश्च य र् से पूछा.
- हां य हां पुजारी सपरिवार रहता है.कुछ ही दूरी पर उनका आवास है.
हम देवालय  तक पहुंच ने सीढ़ियां च ढ़ने लगे.हम मूतिर्यों के समक्ष पहुंचे.भीतर दीप जल रहा था.अगरबत्ती हुम की सुगंध नाक और मक्स्तष्क को तरोताजा कर दिया.भीतर विराज मान मूतिर्यों को देखकर मेरे हाथ श्रद्धावश अनायास जुड़ गये.पत्नी की Òýि छत की ओर दौड़ी.वहां छड़ से लटक रही घंटी को देख रही थी.उसने घंटी बजायी.मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ.मैंने भी तत्काल घंटी बजा दी.घंटी की आवाज से देवालय  झनक उठा.उसकी आवाज मंद्धिम नहीं हो पायी थी कि खड़ाऊ की आवाज सुनाई दी.मेरी Òýि खड़ाऊ की ओर दौड़ी.माथे में तिलक, पीछे की ओर हाथ भर लटक रही चोंटी.पेट थोड़ा निकला हुआ.तन में मात्र धोती और कांधे में साफी.लम्बा- तगड़ा मानव खड़ाऊ खटकाते हमारे समाने आया.उसकी वेश भूषा को देख कर मैं जान गया कि य ही है इस मंदिर का पुजारी.उसने आते ही कहा- पास ही मेरा निवास है. मंदिर खाली था सो घर च ला गया था.घंटी की आवाज सुनी तो दौड़ा च ला आया.
हम कटघरे से बाहर खड़े थे.पुजारी ने कहा - आप लोग भीतर जाइये. दीप को थाली में रख आरती पूजा कीजिये.
- हम लोग भीतर जाये और आप....।
- मैं आज मंदिर भीतर नहीं जा सकता...।
- यिों...? मैंने कारण जानना चाहा.
- आप मेरी बात मानिये...
मेरे प्रश्न का उत्तर दिये बिना पुजारी मंत्रो‚ार का उ‚ारण करने लगा.मैं भीतर गया.पत्नी भी साथ हो ली.वहां दीप जल रहा था उसे थाली में रखा. मूतिर्यों की पूजा अच र्ना की फिर हम आरती करने लगे.आरती समाÄि बाद पुजारी ने लोटे की ओर संकेत कर कहा- उसमें पानी है.उसका आच मन कर लीजिये.और हां प्रसाद भी आप ही को लेना पड़ेगा.
मैंने वही किया जो पुजारी ने कहा.हालांकि मैं और पत्नी पुजारी के कहे अनुसार कर रहे थे पर मेरे भीतर प्रश्न उठ रहा था कि आखिर पूजा पंडित यिों नहीं करवा रहा है.हमने प्रसाद ली शेष प्रसाद और कुछ रूपये थाली में रख दिये.पुजारी ने कहा- थाली खाली करके प्रसाद और च ढ़ोतरी मुझे दे दो.मैंने ऐसा ही किया.च ढ़ोतरी को देखकर पुजारी के मन में मैने संतोष के भाव पढ़ा.
हम मूतियों के पास से बाहर आ गये.वहां पर बैठ गये.पुजारी भी हमसे थोड़ी दूरी बना कर बैठ गया.उसने कहा- य हां जो भी कामना के लिए आते हैं उनकी कामना पूरी होती है.आप सही स्थान पर पहुंचे है.देखना इस वषर् के आते तक आपके घर ब‚े की किलकारी गूंजेगी.
मैं ही नहीं पत्नी भी आश्च य र्च कित थी कि आखिर पुजारी को कैसे पता च ल गया कि हम संतान कामना के लिए आये हैं.मैंने कहा- पुजारी जी यिा आप हाथ भी देखते है..?
पुजारी ने हंस कर कहा- नहीं, मैं मन देखता हूं.और जान जाता हूं कि भI किस मुसीबत की वजह से य हां आया है.
उसके इस वायि  ने मुझे मंदिर की मूतियों के साथ पुजारी के लिए भी श्रद्धावान बना दिया.पुजारी ने आगे कहा - इन्हीं की दया से मैं संतान संपÛ हूं.
- आपकी कितनी संतान है...।
- दो लड़की दो लड़का ..एक और आने वाली है. वह लड़का होगा या लड़की मुझे पता नहीं.

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