सुरेश सर्वेद
लाजवंती बैठी रही.
सोचती रही - महीना पूरा हो गया है. आज मेहनताना मिल जायेगा. घड़ी की सुई घूम
रही थी. घंटी बजी. लाजवंती पढ़ी - लिखी तो थी नहीं. उसने घड़ी की घंटी सुनी.
गिनती की - एक . . दो. . तीन. . आठ . . । यानी आठ बज गये. घर की याद सताने
लगी. बच्चों के चेहरे आंखों के सामने नाचने लगे. वह दो रुपये छोड़ आयी थी.
कुल दो रुपये ही बच पाये थे. कह आयी थी बड़की से सब्जी खरीद कर रख लेना. मैं
आऊंगी तब बनाऊंगी. सोचा था -जल्दी मेहनताना मिल जायेगा. मगर प्रतिमाह का
यही हाल था. लाजवंती रोज छह बजे लौट जाती थी. लेट - लतीफ तब होती जब उसे
मेहनताना लेना होता.
मोटी मालकिन की इस आदत से लाजवंती को चिढ़ थी
पर कह नहीं पाती थी. देर से आने पर मालकिन चिल्लाती लाजवंती तब का क्रोध
चेहरे पर आ जाता. कहना चाहती - महीना खत्म होता है तब मुझे भी तो मेहनताना
कि लिए घंटों बिठाती हो. . . पर जीभ मुंह में लपलपाकर रह जाती. मस्तिष्क
में विचार कौंधते पर शब्द रुप में प्रकट करने का साहस नहीं कर पाती.
लाजवंती
के मौन का पूरा - पूरा लाभ मालकिन उठाती. जब जी में आता सुना देती. कई बार
लाजवंती की इच्छा हुई - कह दें, आप मुझे ज्यादा न सुनायें. मेहनताना लेने
जब देर रात तक बैठती तब सोचती - मेहनताना लेकर कह दूंगी - कल से काम पर
नहीं आऊंगी. सौ - सौ के पांच नोट हाथ में आते ही उसके विचार में परिवर्तन आ
जाता. वह सब कुछ भूल काम में तैनात हो जाती.
मोटी मालकिन आयी देखा
- लाजवंती अब तक बैठी है. लाजवंती के बैठने का उद्देश्य वह समझ चुकी थी.
आज उसे लाजवंती के मेहनताना का हिसाब भी करना था. बावजूद उसने कहा - अरी,
तुम अब तक बैठी हो.
यह उसकी आदत थी. लाजवंती न चाहते हुए भी
मुस्कराती. भारी - भरकम देह वाली मालकिन ने ऐसे कहा मानो उसे यह पता ही न
हो कि महीना पूरा हो गया है. उसने कहा - अरी,आज तुम्हारा महीना पूरा हो गया
न ?
लाजवंती ने कुछ नहीं कहा. मौन स्वीकृति पर्याप्त थी. मोटी भीतर
गयी. लौटी तो उसके हाथ में सौ - सौ के पांच नोट थे. लाजवंती की ओर बढ़ाते
हुए बोली - मैं तो भूल ही गयी थी. तुम नाहक परेशान होती बैठी रही. मुझसे कह
दिया होता.
क्या कहती ? क्यों कहती ? वह भुक्तभोगी थी. एक - दो बार उसने मेहनताना मांगा था, तब भी उसे इंतजार करना पड़ा था.
न
जाने ये उच्च वर्ग क्यों कामवाली की विवशता नहीं समझता ? क्या मिलता है
किसी को व्यर्थ इंतजार करवाने में ? शायद यह उच्चता की निशानी है. . . ओछी
उच्चता की. . ।
रुपये ले लाजवंती जाने हुई. मोटी ने कहा - अरी, चार
जूठे बर्तन निकल आये हैं. उन्हें मल दें. फिर चली जाना. महीना भर का
मेहनताना हाथ में था. कल से फिर गिनती शुरु होती मगर आज ही उसे बर्तन मलना
पड़े. यानी यह काम मुफ्त खाते में जायेगा.
कोई महीना ऐसा नहीं गया
होगा जब मोटी ने मेहनताना देने के बाद काम न सौंपा हो. रुपये देकर वह अहसास
दिलाना चाहती है कि उसने कामवाली पर एहसान किया है. लाजवंती ने जल्दी -
जल्दी काम समाप्त किया और घर की ओर भागने लगी कि मोटी ने कहा - कल थोड़ा
जल्दी आ जाना. . . ।
लाजवंती ने सिर हिला दिया और घर की ओर दौड़
पड़ी. घर पहुंची तो बड़की जाग रही थी. मां को देखते ही कह उठी - मां पप्पू
रोते - रोते ही सो गया है.
लाजवंती जानती थी - पप्पू भूख से रोया
होगा. थकान में सोया होगा. बड़की से तो उम्मीद नहीं की जा सकती. वह खाना
पकाकर पप्पू को खिला दे. अभी उसकी उमर ही क्या थी - छह वर्ष. . बच्ची ही तो
है वह. . . . ।
बिजली कौंधने के साथ ही बड़की के पिता का चेहरा
आंखों के सामने झूल गया - शराब पीने में उसने थोड़ी भी कोताही नहीं बरती.
कितनी बार लाजवंती ने उसे शराब पीने से मना किया लेकिन पत्नी की बात नहीं
माननी थी , नहीं मानी. अंतिम समय मे उसे पत्नी के निवेदन का महत्व समझ आया.
तब तक बहुत समय हो चुका था. मृत्यु उसे निगलने के लिए तैयार थी. वह मृत्यु
से छुटकारा नहीं पा सका.
उन दिनों लाजवंती गर्भावस्था में थी.
परिवार वालों ने गर्भपात करा कर पुर्नविवाह की सलाह दी. उसने न गर्भपात
कराया न ही पुर्नविवाह को स्वीकार किया. यहीं से पारिवारिक तनाव शुरु हुआ
और उसने पेट के बच्चे के साथ बड़की को लेकर अलग घर बसा लिया, जहां उसने
पप्पू को जन्म दिया.
बच्चे की सूरत - शक्ल पिता पर गयी थी. लाजवंती को संतोष था कि पति ही पुत्र के रुप में अवतरित हुआ है .
वह
विचारों से मुक्त हुई और कपड़े बदले बिना रसोई में जुट गई. बड़की ने भी
सहयोग दिया. भोजन तैयार कर सोये हुए पुत्र को जगाने लगी. भूख और रोने से
बच्चा पस्त हो चुका था. मां ने कहा - उठ पप्पू बेटा, खाना तैयार हो चुका
है. खाना खा ले .
उसने आज निश्चय किया - चाहे कुछ भी हो जाये, वह
मजदूरी करेगी. बर्तन मलने नहीं जायेगी. भवन बनाने का काम कर लेगी, सड़क
बनाने का काम कर लेगी.
उस रात उसे ढंग से नींद नहीं आयी. सुबह उठते
ही बच्चों के लिए निवाला तैयार करने लगी. निवाला बनाकर वह चौक में जाकर
खड़ी हो गई. शाम को लौटी तो उसे संतोष था. यद्यपि हाथ में फफोले पड़ गये थे
मगर उसे आज का काम पसंद था. एक तो समय पर लौट आयी थी. ऊपर से मेहनताना भी
दुगुना मिला था.
पूरे आठ दिन बीत गये. लाजवंती, मोटी के घर काम पर
नहीं गयी थी. परेशान मोटी लाजवंती के घर की ओर दौड़ी. लाजवंती घर पर ही थी.
उसे देख समझ गई कि यह क्यों आयी है ? मोटी ने कहा - लाजवंती तुम काम पर
क्यों नहीं आ रही हो ? कहीं तुम्हारी तबीयत तो खराब नहीं ?
- मेरी तबीयत भला क्यों खराब होगी. . ? लाजवंती ने कहा.
पप्पू
वहीं जमीन पर लेटा था. उसकी नाक - मुंह से बह रही त्रिवेणी को देखकर मोटी
का मन घृणा से भर गया पर घृणा करने से उसका काम बिगड़ सकता था. उसने पप्पू
को उठाया और महंगी साड़ी के आंचल से बच्चे की गंदगी को पोंछते हुए बोली -
बच्चे को साफ - सफाई से रखना चाहिए. . . ।
मोटी के मन में
स्वार्थीपन था पर लाजवंती का मन भर आया,मोटी के कर्म को देखकर. उसके विचार
में परिवर्तन आया और वह पुनः शोषित होने मोटी के घर काम पर जाने लगी. . . .
. ।
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