मैं रामचरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास की बात करने नहीं
जा रहा। मैं अन्य तुलसी की बात करने जा रहा हूं। वे भी एक कवि थे। उन्होंने
भी एक महाकाव्य लिखा। अब महाकाव्य को पुस्तक का रुप देना था। उन्होंने
प्रकाशकों की सूची तैयार की। इस सूची में छोटे बड़े प्रकाशकों के नाम व पते
लिखे थे। उन्होंने प्रकाशकों का चक्कर लगाना शुरु किया। पर उनकी दाल नहीं
गली।
तुलसी ने महाकाव्य में वर्तमान राजनीति और राजनीतिज्ञों को
यथा स्थान दिया था। उन्होंने तटस्थ हो सत्य को लिखा था इसी कारण उन्हें
पक्ष विपक्ष का ख्याल नहीं रहा। इसी त्रुटि के कारण उन्होंने जिसकी प्रशंसा
की उसी की बखिया भी उधेड़ दी थी।
तुलसी अनवरत प्रकाशकों से संपर्क
करते रहे लेकिन प्रकाशकों का किसी न किसी पक्ष से संबधरहा । वे जिनके पास
भी गये वे अपने पक्ष की प्रशंसा पढ़कर खुश हुए मगर दूसरी ओर बखिया उधेड़ी गई
थी उसे पढ़कर नाराज हुए। कुछ ने अपने पक्ष की बुराइयों को महाकाव्य से
निकालने कहा। तुलसी ने अस्वीकार कर दिया। प्रकाशकों को भी गरज नहीं थी।
उन्होंने भी उसकी पुस्तक छापने से इंकार कर दिया। महाकाव्य अप्रकाशित ही
रहा।
अप्रकाशित महाकाव्य को लेकर तुलसी चिंतित रहते। वे दिनों दिन
दुबले हो रहे थे। उन्होंने कभी विचार भी नहीं किया था कि जो निष्पक्षता की
बातें करता है वह भी पक्षधर हुआ करता हैं।
तुलसी ने महाकाव्य लिखने
अथक परिश्रम किया था। दिन रात की सुधि नहीं रही। पेट काटकर स्टेशनरी क्रय
की। उनकी पत्नी उन पर कितनी बिफरती थी ,इन तमाम झंझटों को सिर्फ वे ही
जानते थे । झंझावातों के बाद भी उन्होंने महाकाव्य लिखना नहीं छोड़ा। उनका
विचार था कि जिस तरह गोस्वामी तुलसीदास को लोग अब तक मान सम्मान देते हैं ।
उनके द्वारा रचित मानस को सस्वर पढ़ते हैं। ठीक उसी तरह उनके भी महाकाव्य
को लोग सस्वर पढ़ेंगे। उन्हें सम्मान देंगे मगर महाकाव्य के प्रकाशन के अभाव
में उनका विचार , विचार तक ही सीमित रह गया था।
तुलसी प्रातः उठ
जाते। छपरी में पालथी मार कर बैठ जाते। महाकाव्य की पाण्डुलिपि सामने होती।
वे उसे पढ़ने लगते लेकिन वे एक पंक्ति भी नहीं पढ़ पाते कि पत्नी की झिड़क
सुनने को मिलती। कहती-अजी,तुम महाकाव्य- वहाकाव्य के मोह में न पड़ो। तुम
जैसे हिन्दी लेखकों का पूछने वाला कोई नहीं। परेशानी में व्यर्थ पड़े हो। -
पत्नी ने रोटी की ओर संकेत करते हुए कहा-यही हाल रहा तो एक दिन हमें भूखे मरने की नौबत झेलनी पड़ेगी। -
तुलसी
भी अपने धुन के पक्के थे। उन्होंने कहा-तुम नासमझ हो। जब महाकाव्य लिख
डालूंगा। वह प्रकाशित हो जायेगा तभी तुम इसके महत्व को समझ पाओगी। इससे
मेरा नाम अमिट रहेगा। तुम्हारा भी नाम होगा। जैसे गोस्वामी तुलसीदास को लोग
अब तक नहीं भूले हैं साथ ही उनकी पत्नी को भी लोग स्मरण करते हैं। -
-
गोस्वामी का समय और था। उस समय लोग बुद्धिजीवियों का महत्व समझते थे।
उन्हें बिना काम धाम किये रोटी मिल जाया करती थी। उनके पास बहुत खाली समय
हुआ करता था। खाली समय का ही उपयोग वे लोग इस प्रकार की रचना के लिए किया
करते थे। अब समय विपरीत है। यदि तुम रचना करने में ही समय जाया करोगे तो
बेटियों की शादी कैसे करोगे। मुन्नी को उच्च शिक्षा कैसे दिलवाओगे। तुम तो
भूखें मरोगे,हमें भी मारोगे। -
पत्नी के उपदेश का तुलसी पर कोई असर
नहीं होता था। पत्नी को ही मुंह बंद करना पड़ता था। तुलसी देर रात तक
महाकाव्य लिखने में मशगूल रहते। पत्नी पलंग पर पड़ी उनका इंतजार करती। जब
नींद सताने लगती तब तुलसी का लिखना बंद होता था। वे चुपचाप पलंग पर आ सो
जाते। उनकी आंख लगने लगती। पत्नी का क्रोध फनफना उठता। वह तुलसी पर झपट
पड़ती। उनके मध्य युद्ध छिड़ जाता। तुलसी समझाने का प्रयास करते। पत्नी को
महाकाव्य शत्रु की तरह लगता। एक दिन पत्नी ने जल भुन कर कहा-तुम्हें समझा
समझा कर मैं हार गयी हूं। अब बर्दाश्त से बाहर हो गया है। मैं कल मायके चली
जाती हूं फिर स्वतंत्र बैठ कर लिखना महाकाव्य। -
तुलसी प्रसन्न हो गये। बोले- तुम ठीक कहती हो। वास्तव में कितने दिन हो गये तुम्हें मायके गये। बच्चों को भी साथ ले जाना। -
पत्नी
तिलमिला गई। वह अभी आठ दिन पहले ही तो मायके से लौट कर आयी थी। मगर तुलसी
ऐसी बातें कर रहे थे मानो विवाह के बाद से पत्नी मायके ही नहीं गई हो। उसने
झुंझला कर कहा- क्या तुम मुझे बेवकूफ समझते हो। मैं मायके चली जाऊं यदि आठ
दस दिन में मायके ही जाना होता तो तुमसे विवाह ही क्यों करती। -
- तुम्हारी जैसी इच्छा.. .. .. -
पत्नी से कुछ कहते नहीं बनता था। वह चुप हो जाती थी।
पारिवारिक
कलह ज्यों की त्यों थी मगर तुलसी ने महाकाव्य को लिखना नहीं छोड़ा।
उन्होंने आखिरकार महाकाव्य को पूरा कर ही लिया। वे जितना परेशान महाकाव्य
को पूरा करने में नहीं हुए थे उससे कही अधिक परेशान महाकाव्य के अप्रकाशन
को लेक र थे। पाण्डुलिपि संभाले घूमते पूरे आठ वर्ष बीतने को थे। उनके बाद
के रचनाकार आसमान को छू रहे थे,जबकि तुलसी धरा के धरा पर ही थे।
पत्नी
ने चाय के साथ कटु शब्द बाण छोड़ा। यह शब्द तुलसी के लिए असहनीय था।
उन्होंने चाय नहीं पी। वे सोचकर घर से निकल गये कि आत्महत्या करेंगे। वे
अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए चलते चले। वे सोचने लगे कि आत्महत्या के कई
उपाय हैं। वे सरल सुगम और सस्ती विधि को उपयोग में लाना चाहते थे। उन्हें
रेल से कटकर आत्महत्या करना थोड़ा उचित लगा तुलसी रेल पटरी की ओर चल पड़े।
जगह वीरान थी। वह स्थान उन्हें आत्महत्या के लिए उपयुक्त लगा। वे पटरी पर
गर्दन रख कर लेट गये। कुछ क्षण निकले कि उन्हें गाड़ी की आवाज सुनायी दी।
गाड़ी जैसे जैसे नजदीक आती गई। उनके हृदय की गति तेज होती गई। गाड़ी कुछ ही
दूर थी कि वे हड़बड़ाकर उठ गये। गाड़ी छकछकाती आगे निकल गई। तुलसी हक्का बक्का
उसे देखते रह गये।
तुलसी को यह तरीका अनुपयुक्त लगा। वे दूसरे
तरीका सोचने लगे। उनका अंतिम प्रयास नदी में कूदकर प्राण देने का था। उनके
पग नदी की ओर बढ़ गये । वे उस खाई के किनारे खड़े हो गये जहां से आदमी गिरे
तो उसकी लाश का भी पता न चले। वे पूर्ण तैयारी में थे। उन्होंने आकाश की ओर
देखा हाथ जोड़कर बड़बड़ाया कि काम सफल हो। फिर उनकी दृष्टि लहराते बलखाते
समुद्र पर गई। छरछाते पानी की आवाज से लग रहा था-वह उन्हें सादर आमंत्रित
कर रहा है।
तुलसी धीरे-धीरे सरक कर किनारे चले गये। मौत सुनिश्चित
थी। उन्होंने एक बार ईष्ट देवताओं को पुनः स्मरण किया। और कूदने को हुए कि
उनकी अंर्तात्मा ने दहाड़ा- मूर्ख,तुम आत्महत्या करने क्यों चले। हो गये
डांवाडोल। जब तुम्हारे जैसे ऐसे कर्म करेगे तो औरों का क्या होगा? -
तुलसी
भला कब चुप रहने वाले थे। वे अंर्तात्मा पर बिफरे-यथार्थ में मूर्ख मैं
नहीं तुम हो। अन्य की दुर्दशा हो जाये इससे मुझे क्या ? जब मेरी कोई सुनता
नहीं तो फिर मैं क्यों किसी के हित -अहित के बारे में सोचूं ? -
तुलसी
की बात खत्म होते ही अंर्तात्मा ने कहा- माना तुमने महाकाव्य रचा और वह
अप्रकाशित रहा। पर तुम आत्महत्या करने क्यों चले। इसमें गलती सिर्फ
तुम्हारी ही नहीं। गलती तो उस रचना की है न जिसके लिए तुमने अपना समय और धन
नष्ट किया। सजा के भागीदार भी तो वह है। और फिर तुम स्वयं को दण्डित करने
के बदले उसे दण्ड क्यों नहीं देते जिसने तुम्हारा सुख शान्ति छीना। -
बात
तुलसी को सच लगी। उन्होंने सोचा-वास्तव में दण्ड के भागीदार तो महाकाव्य
है। उनके विचार ने मोड़ लिया। आत्महत्या को त्याग कर घर आये। पाण्डुलिपी
उठाई। पाकगृह में गये। उनकी पत्नी भोजन बना रही थी। चूल्हें में आग धधक रही
थी। उन्होंने पाण्डुलिपी चूल्हें में झोंक दी। पत्नी अवाक देखती रह गई।
इसकी खबर पूरे देश में फैली। तुलसी के घर बुद्धिजीवी आये। पत्रकारों की एक
जमात थी। जिन प्रकाशकों ने महाकाव्य प्रकाशित करने से इंकार दिये थे,वे भी
आये। फोटोग्राफरों ने जलती हुई पाण्डुलिपी तथा तुलसी के चित्र लिये। समाचार
पत्रो में उनका साक्षात्कार प्रकाशित हुआ
तुलसी का नाम यत्र तत्र
सर्वत्र फैल गया। लेकिन तुलसी को अफसोस इस बात का था कि उन्होंने यह कर्म
पहले क्यों नहीं किये। उन्होंने एक ही महाकाव्य लिखने में इतने दिन क्यों
लगाये। इस समय तक तो कम से कम पांच सात महाकाव्य लिख कर आग में झोंक देना
था।
सुनने में आया है कि तुलसी अब एक और महाकाव्य लिखने में व्यस्त
है । इस महाकाव्य का क्या होगा यह तो समय ही तय करेगा। पर तुलसी को
विश्वास है कि उनका नाम सूर्य की किरणों की तरह अवश्य फैलेगा,चाहे महाकाव्य
के प्रकाशित होने पर हो या फिर आहूति देने पर.. .. ..
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