सुरेश सर्वेद
राजेश्वरी आज एक नहीं दोनों
पुत्रों पर बिफर पड़ी. उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि उनके पुत्र इतने
स्वार्थी हो जायेगे. सामने पिता की लाश पड़ी थी. पुत्रों को पिता के मरने की
दुख नहीं अपितु धन बांटने की चिंता खायी जा रही थी. गांव वाले समझाते रहे
पर दोनों पुत्र लड़ते अड़े रहे कि धन का बंटवारा हो जाये तो पिता के खात खवाई
में कौन क्या खर्च करेगा इसका निश्चय कर लिया जायेगा. गांव वालों ने
उन्हें समझाने का प्रयास किया - लाश का अग्नि संस्कार कर दो फिर बैठ कर
बांटा - हिस्सा के साथ कौन क्या करेगा इसका निर्णय कर लेना. पर दोनों पुत्र
गांव वालों की भी बात मानने को तैयार नहीं थे. राजेश्वरी से रहा नहीं गया.
वह बौखला गयी. घर के भीतर से कुल्हाड़ी उठा लायी. दोनों पुत्रों पर
चिल्लाकर बोली - लो कुल्हाड़ी और मेरा दो भाग कर एक एक भाग बांट लो. . . ।
राजेश्वरी
के तेवर को देखकर न केवल दोनों पुत्र अपितु गांव वाले भी सन्न रह गये. आज
तक राजेश्वरी का ऐसा रुप किसी ने नहीं देखा था. राजेश्वरी तो साक्षात त्याग
की मूरत थी. कभी किसी से कोई गिला शिकवा नहीं की. जैसे मिला उसने जीवन
जीया. गांव वालों को यह जरा भी भनक नहीं होने दिया कि उसके परिवार में भी
वाद विवाद होते रहता है. कभी उसके पुत्रों ने उससे अदावटी की या फिर बहुओं
ने उसे सताया. उसने कभी महिलाओं की चौपाल में बैठकर बुराई नहीं की. जब कभी
कोई महिला अपने घर की बुराई चौपाल में करती तो वह कहती - घर की बात घर में
ही रहने देना चाहिए. दूसरों के घर के महाभारत में सबको मजा आता है. . . ।
इस
पर महिलाएं कहती - बहन, कभी तुम्हारे घर भी महाभारत होगा न तो तुम भी
हमारे बीच रोकर बताओगी. तुम्हारे घर खटपट होती ही नहीं तो फिर क्यों किसी
की पीड़ा को समझोगी.
घर में खटपट होती भी थी या नहीं यह तो
राजेश्वरी ही जानती थी. वह हंस कर कह देती - चार बर्तन घर में रहे और आपस
में न टकराये यह संभव है क्या ? लेकिन ध्यान रखना चाहिए उसकी खनक बाहर नहीं
जाना चाहिए.
महिलाओं को राजेश्वरी की यह बात किसी उपदेश से कम
नहीं लगती थी. एक तो वह चारी - चुगली में रहती नहीं थी और कभी इत्फाकन
सुनना पड़ जाता तो वह एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देती थी.
अभी
कुछ दिनों से उसके घर का वातावरण बिगड़ गया था. दिन भर घर में तनाव की
स्थिति निर्मित रहती. बहुएं मुंह फुलाएं रहती. बेटे सीधे मुंह बातें नहीं
करते थे. बात - बात पर विवाद होने लगता. राजेश्वरी समझाने का प्रयास करती
तो दोनों लड़के उस पर भड़क उठते - अब बहुत हो गया. तुम अपनी सीख अपने पास
रखो. तुमने अपने जीवन जी लिया अब हमें अपनी तरह से अपना जीवन जीने दो. हमें
बंटवारा चाहिए मतलब चाहिए.
जिन पुत्रों को उसने आंचल मे छिपाकर
दूध पिलाया था. उनके मुंह से ऐसे शब्द सुनकर राजेश्वरी आहत हो जाती. वह
अपने पति रामधन से कहती - सुना जी, क्या कहा आपके लड़के ने. . . ?
-
मैं तो रोज सुन रहा हूं. तुम नहीं सुनी हो तो सुनो. . . । राजेश्वरी को
सांत्वना के स्थान पर ताना सुनना पड़ता. रामधन कहता - बेटा. . बेटा. . बेटा.
. खूब मनौतियां की थी न. बच्चे उद्दण्ड न हो जाये सोचकर डांटता था तो
तुम्हें मैं बच्चों का दुश्मन लगता था. अब आंसू बहाने से मतलब नहीं. वे
समझदार हो गये हैं. अब रोने धोने से काम नहीं बनेगा. इनका मुंह खुल गया है.
उसे पूरा करा कर ही दम लेगे. उन्हें तुम्हारी जज्बातों की नहीं बंटवारे की
चिंता है. अपनी - अपनी संपत्ति पाना चाहते हैं. बंटवारा पाये बगैर उन्हें
चैन नहीं.
- कौन मां अपने पुत्रों को नहीं पालती. उसके पुत कपूत निकलेगा ऐसा क्या कोई मां जानती है. मैंने तो मां का फर्ज निभाया है.
-
तुमने बहुत अच्छी तरह मां का फर्ज अदा किया है. अरी, तुमने मां का फर्ज
अदा करते समय उन्हें पुत्रों का भी दायित्व मां - पिता के लिए होता क्या है
क्यों नहीं समझायी ?
- तुम तो सदैव मुझे ताने ही देते हो. अपनी पीड़ा कम करने तुमसे सहानुभूति बटोरने आती हूं तो उल्टा पीड़ित कर देते हो.
राजेश्वरी
रो पड़ती. रामधन कहता - अब रोने के अलावा है ही क्या तुम्हारे पास. . . . ।
इतना कह कर रामधन निकल जाता. राजेश्वरी आखिरी आंसू तक रोती पर उसे न कोई
चुप कराने आता और न ही कोई उसके आंसू को सहेजने. . . . ।
घर में कदम
रखते ही पुत्र अपने पिता से जमीन जायजाद के बंटवारे की बात शुरु कर देते.
रामधन इससे उब गया था. वह अक्सर अब घर से गायब रहने लगा था. खास कर उस समय
घर से गायब रहता जब उनके दोनों पुत्र के काम से वापस आने का समय होता. देर
रात तक वह घर लौटता और राजेश्वरी उसके हिस्से का जो भी खाना बचा होता उसे
दे देती. उसे खा कर वह सो जाता. उस दिन दोनों लड़कों ने चिल्लाकर कहा -
हमारे घर आने के समय घर से गायब होकर हमें अपने अधिकार से वंचित रखा जा रहा
है. यह उचित नहीं. मां, आज संध्या हम काम से लौटे तो उन्हें कह दीजियेगा
कि वे घर पर ही रहे वरना हम बर्दाश्त नहीं करेंगे.
राजेश्वरी ने
चुप सुना, पुत्रों के कटु वाक्यों से रामधन की भी नींद उजड़ चुकी थी. उसने
भी पुत्रों की बातों को भरपूर कान भर सुना. वह पुत्रों के सामने नहीं आया.
दोनों लड़के काम पर चले गये. रामधन उठा तो बहुओं ने उसे हिकारत की द्य्ष्टि
से देखकर नाक भौहें सिकोड़ी. रामधन से सहा नहीं गया. कहा - पराये घर से आयी
हो तो तुम लोग ऐसे व्यवहार करोगी ही. अरे, जब घर बच्चा जिसे हमने जन्म
दिया. पाला - पोंसा वही हमारा सम्मान नहीं कर सकते तो तुम लोगों से भला
कैसे और क्यों कर आशा किया जाये. गलती तुम लोगों की नहीं. गलती के अधिकार
तो हमारे सुपुत्र है. उन सुपुत्रों की जिसे हमने अपने बुढ़ापे का लाठी समझ
बैठे थे.
बहुएं क ो जब रामधन खरी - खोटी सुना रहा था. राजेश्वरी
बीच बचाव के लिए आ गयी. बोली - तुम बहुओं को क्यों सुनाते हो ? क्यों नहीं
समझाते अपने लड़कों को ? ये तो वही करेंगी जो लड़के करेंगे. . . ।
इतना
कुछ होने के बाद भी तुम इनके हितैषी बनना चाहती हो. तुम्हारी इच्छा लातें
खाने की ही है तो खाते रहो. मैं तो बर्दाश्त नहीं कर सकता. . . ।
इतना
कहकर रामधन घर से निकल गया. राजेश्वरी फफक कर रोने लगी. बहुएं आयी. नाक
मुंह सिकोड़कर चली गयी. दोनों बहुओं में से किसी ने भी हमदर्दी के दो शब्द
कहने की आवश्यकता नहीं समझी. राजेश्वरी आखिरी आंसू तक रोती रही फिर चुप हो
गई.
राजेश्वरी का छोटा लड़का महेश आया. उसने पूछा - पिता जी कहां
हैं. . । राजेश्वरी चुप रही. वह झल्लाकर अपने कमरे में चला गया. बड़ा लड़का
शिशुपाल आया. उसने भी पूछा पर राजेश्वरी निरुत्तर रही. वह भी अपने कमरे में
चला गया.
संघ्या रात्रि में बदलने लगी. धीरे - धीरे रात गहराने
लगी. रामधन के आने का समय गुजरा जा रहा था पर रामधन के आगमन का कहीं कोई
चिन्ह नहीं था. राजेश्वरी अब तक भोजन नहीं करी थी. वह अक्सर रामधन के आने
के बाद ही भोजन किया करती थी पर रात अधिक होने के बावजूद रामधन नहीं आया तो
उसके मानस पटल में तरह - तरह के विचार उठने लगे. वह चाह तो रही थी कि
पुत्रों के कमरे में जाकर अब तक रामधन के नहीं आने के कारणों का पता लगाने
जाने कहे, पर वह जानती थी - पुत्रों को इससे कोई मतलब नहीं. वह मनमसोस कर
रह गयी. रात गहराती गयी और राजेश्वरी का मन भयाक्रांत होता गया. पिता के अब
तक न आने की चिंता न बड़का को थी और न छोटका को. इधर राजेश्वरी करवटें
बदलती छटपटा रही थी उधर बच्चे नींद में खर्राटे भर रहे थे.
पूस की
रात. कड़ाके की ठंड पड़ रही थी. जैसे - जैसे रात गहरा रही थी. ठण्ड अपनी यौवन
पर आती गयी. सारी रात गुजर गयी. पहट का समय आया पर रामधन न आया और न ही
राजेश्वरी की आंखों में नींद आयी. वह बार बार बच्चों के कमरे की ओर झांक कर
इसलिए देखती थी कि किसी के कमरे का दरवाजा खुलेगा. उसे वह रामधन के रात भर
नहीं आने की खबर देगी. सूर्य चढ़ने लगा था. लेकिन न बड़े लड़के के कमरे का
दरवाजा खुला न छोटे लड़के का. अब राजेश्वरी से रह नहीं गया. उसने बड़े लड़के
के दरवाजे की कुण्डी खटखटा दिया. बड़ी बहू आंख मलती दरवाजा खोली. सामने अपनी
सास को देखकर बोली - क्या बात है. . . ?
-शिशुपाल जागा नहीं है क्या ?
- अगर नींद में नहीं होते तो पलंग पर पड़े रहते क्या ? बहू ने कर्कश आवाज में कहा.
- बात यह नहीं है बहू. . . ।
- तो और क्या बात है, सुबह - सुबह नींद में दखल देने आ गयी ?
- दरअसल तुम्हारे ससुर अब तक घर नहीं आये है.
- तो इसमें वे क्या करेंगे. रात भर नहीं आये तो दिन में आ जायेगें.
शिशुपाल की नींद टूट चुकी थी. उसने सास - बहू में हो रही बात को सुन लिया. वह बाहर आया. पूछा - क्या रात भर पिता घर नहीं आये ?
- हां रे, इतनी ठण्ड पड़ रही है, पता नहीं कहां गये होंगे. . पता तो करो. . ।
- उन्हें किसने कहा, रात भर घर से गायब रहे. उन्हें स्वयं की चिंता नहीं तो फिर हम क्यों करें ? वे जैसे गये हैं आ भी जायेंगे.
पुत्र
शिशुपाल ने बड़ी निर्ममता पूर्वक कहा. दूसरे पुत्र से भी उसे कोई आशा नहीं
थी. वह स्वयं अपने पति की खोज में निकलने लगी कि हांफते हुए कैलाश आया.
सुबह - सुबह कैलाश को अपने घर देखकर राजेश्वरी के भीतर शंकाएं सिपचने लगी.
उसने कैलाश से पूछा - कैलाश, तुम कहां से दौड़ लगाते आ रहे हो ?
- चाची, शिशुपाल कहां है. . ।
- क्या बात है, तुम मुझे तो बताओ.
- मैं शिशुपाल से मिलना चाहता हूं.
- वह अपने कमरे में है. . . . ।
कैलाश
शिशुपाल के कमरे की ओर दौड़ा. राजेश्वरी पति को खोजने जाने वाली थी पर
कैलाश के आगमन ने उसे आगे जाने से रोक दिया. उसका ध्यान शिशुपाल के कमरे की
ओर बंट गया. शिशुपाल कैलाश के साथ महेश के कमरे की ओर दौड़ा. महेश अभी तक
सो कर नहीं उठा था. कुण्डी खटखटाने से उसकी नींद उचट गयी. उसने अपनी पत्नी
को देखने के लिए कहा. उसकी पत्नी ने दरवाजा खोल दी. सामने शिशुपाल को देखकर
इसकी सूचना महेश को दी. महेश ने सोचा - सुबह - सुबह लड़ाई करने आ रहा है.
वह पूरी मुस्तैदी के साथ उठा. शिशुपाल केा भीतर बुलाया. शिशुपाल कैलाश के
साथ भीतर आया. महेश ने शिशुपाल से कहा - सुबह - सुबह लड़ाई करने का विचार है
क्या ?
- मैं लड़ाई करने नहीं, यह बताने आया हूं. . . . . ।
- क्या बताने आये हो, यही न कि तुम्हें बहेरानार वाली खेत चाहिए. पर याद रखो मैं उस जमीन को अपने हिस्से में लूंगा.
- तुमसे बांटा हिस्सा की बात करने नहीं, यह बताने आया हूं कि पिता जी का स्वर्गवास हो गया. . . . ।
क्षण भर महेश शून्य हो गया फिर पूछा - कैसे . . . ?
- कैलाश बता रहा है कि उनकी लाश खेत में पड़ी है.
दोनों
लड़के खेत की ओर दौड़े. राजेश्वरी उनसे पूछती रही - आखिर बात क्या है, मुझे
कोई कुछ बताते क्यों नहीं ? पर उसकी बात को किसी ने नहीं सुनी.
जब दोनों पुत्र गांव वालों के साथ घर आये तब सारा माजरा राजेश्वरी को समझ आया. वह अपने पति के शव से लिपटकर फफककर रो पड़ी.
रामधन
के शव का अंतिम संस्कार किया गया. उसके मृत कार्यक्रम में मेहमान आने लगे.
अभी कार्यक्रम का दूसरा ही दिन था कि दोनों भाइयों में बंटवारे को लेकर
फिर विवाद शुरु हो गया. मेहमानों ने समझाने का प्रयास किया कि कार्यक्रम को
निपटने दो फिर एक साथ बैठकर बांटे हिस्से की बात कर लेना. पर दोनों बेसब्र
थे. उन्हें दुख इस बात का नहीं था कि उनके पिता जी स्वर्ग सिधार गये अपितु
उन्हें चिंता इस बात की थी - वे जिस जमीन को चाह रहे हैं उनके हिस्से में
वह जमीन आयेगी कि नहीं. राजेश्वरी ने भी समझाने का प्रयास किया. वह चाह रही
थी कि शांति पूर्वक उनके पति के कार्यक्रम निपट जाये. जिससे उनकी आत्मा को
शांति मिले. पर उसके बेटे तो अशांति पैदा करने में माहिर थे. वे बात - बात
पर उलझ जाते.
तीसरे दिन रामधन की अस्थि को घर लाया गया. उनकी
अस्थि को विसर्जन करने गंगा ले जाने की चर्चा चलने लगी. बड़े लड़के ने
मुखाग्नि दिया था अतः गंगा जाने के लिए छोटे लड़के से कहा गया. इसी बात को
लेकर दोनों भइयों में तकरार हो गयी. बड़ा लड़का चाहता था कि वही गंगा जाये पर
समाज के कहने पर वह रुक गया. वाद - विवाद के मध्य रामधन का कार्यक्रम
निपटा. किसने कितना खर्चा किया इसका हिसाब किताब किया गया और इसी बात को
लेकर दोनों भइयों में एक बार फिर लड़ाई शुरु हो गई. पूरे तेरह दिनों से
राजेश्वरी पुत्रों के कृत्यों को समोखती आ रही थी पर आज उसका गुस्सा उससे
रोके नहीं रोका गया. वह कुल्हाड़ी उठा लायी. पुत्रों की ओर बढ़ाती बोली -
तुम्हें बंटवारा चाहिए न, कल कर लेना बंटवारा. पहले इस कुल्हाड़ी से मेरा दो
भाग करके एक - एक भाग का बंटवारा कर लो. फिर जमीन जायजाद का जैसे चाहे
बंटवारा कर लेना. . . . ।
अचानक शांति स्वरुपा राजेश्वरी का बदला
रुप देखकर दोनों लड़के सकपका गये. बहुएं सन्न रह गयी. उनसे कुछ कहते नहीं बन
रहा था. राजेश्वरी ने कहा - मैंने बहुत किया, घर की खनक बाहर न जाये. तुम
लोग हो कि यही चाहते हो. तुम लोग जो करना चाहो करते रहना, पर मुझे पहले
मुक्ति दो. . . हां, मुझे मुक्ति दे दो. . . . ।
और राजेश्वरी फफक
कर रो पड़ी. दोनों लड़के सिर झुकाकर खड़े हो गये. गांव - समाज के लोग थूं -
थूं करते चले गये. किसी ने कहा - कहते हैं पुत्र बिना मोक्ष संभव नहीं पर
यह गलत लगता है. मोक्ष की अभिलाषा में व्यक्ति पुत्र पैदा करने उतावले होते
हैं पर उन्हें क्या मालूम कि वह पुत्र उसे मोक्ष नहीं दिला सकता सिवाय नरक
में ढकेलने के. . . . . . ।
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