बुधवार, 13 जुलाई 2016

उल्‍टी गंगा

एक ओर मां की लाश पड़ी थी,दूसरी ओर नियुिित पत्र.इसी नियुIि पत्र के लिए परितोष ने अपना वह समय  खोया है जब उसका खेलने -खाने के दिन थे.वह य ह सुखद समाचार अपनी मां को देना चाहता था पर वह जिस सुखद क्षण का एहसास मां को करना चाहता थ.मां इस दुनिया से उस अनुभव को प्राÄ किए बिना ही च ल बसी.परितोष को समझ नहीं आ रहा था कि ऐसे क्षण में खुशी मनाया जाये या गम.उसके समक्ष सुखद एवं दुखद दोनो क्षण उपक्स्थत था.उसकी आंखों न आसू झर रहे थे और न ही  ओठ में मुस्कान तैरने का नाम ले रही थी.अब उसके समक्ष मात्र स्मृति ही शेष रह गई थी....।
उस दिन मां ने कहा- बेटा आसुतोष,तुम कितने दुबले हो गये हो.तुम्हारा खााना भी टूट चुका है.तुम्हें निराश नहीं होना चाहिए.व्य Iि के जीवन में धूप-छांव आती रहती है. य दि व्य Iि को मात्र सुख ही मिलता रहा तो वह मदमस्त हो दुनियांदारी भूल जाता है और उसमें अहंकार आ जाता है.समय  आने पर तुम्हारे सामने  भी सुख हाथ फैला कर खड़ा हो जायेगा.तुम निराश का त्याग कर प्रयास जारी रखो.सफलता तुम्हारी कदम चुमेंगी.
- मां,आखिर कब तक आशा के ही बल बूते रहूं.तुम तो देख ही रही हो कितने दिनों से नौकरी पाने की लालसा लिए फिर रहा हूं पर सफलता मिलती ही नहीं आखिर कब तक च लेगा य ह ,कब तक.
- संघषर् का नाम ही जीवन ही.सफलता उसमें है जबकि संघषर् जारी रहे.संघर्ष से मुंह मोड़ लेने से सफलता भी हाथ नहीं आती....अच्छा,च ल एक रोटी और ले...।
मां ने उसकी थाली में एक रोटी डालना  चाहा. उसने मना करते हुए कहा-बस मां पेट भर गया.
उसने हाथ मुंह धो कर मां से पूछा- सिदू कहां गयी हैं.
- विमला के घर गयी है ...विमला को देखने वर पक्ष वाले आये हैं...।
सामने की ख·डहर में गजब की धूप थी.गमीर् के दिन थे.आसमान से आग बरस रहा था.परितोष आराम करने अपने कमरे में च ला गया.
कुछ क्षण वह पलंग पर लेटा रहा.सोच ता रहा- आखिर नौकरी मिलेगी भी या नहीं.बहुत मंथन करने पर भी वह किसी निश्च य  पर नहीं पहुंच  पाया अंतत: उसने एक पुस्तक निकाल पढ़ने लगा.वह कुछ पÛे पलटा ही था कि उसकी बहन सिदू की आवाज उसके कान से टकरायी-मां आज तो गजब हो गया.वो अमित हैं न उसने आत्महत्या कर ली.
बहन की आवाज से परितोष के हाथ कांप गये.मां सÛ रह गयी.सिदू दौड़ कर आयी थी. वह हांफ रही थी.परितोष दौड़ कर उनके पास आया.तीनों ने आंखों ही आंखों से बात की,जुबान तो नि:शबद हो चुकी थी.पल भर गंवाये बगैर परितोष घटना स्थल की ओर दौड़ा.
परितोष वापस आया.अब तक धूप नहीं उतर पायी थी. मां एवं बहन सोयी हुई थी.परितोष पुन: अपने कमरे में जाकर पलंग पर पड़ गया.उसकी आंखों  के सामने अमित का चेहरा घूम आया. काली काली तलवार की तरह तीखी मूंछें,घूंघराले बाल,ओठ पर सदैव मुस्कान.वह परितोष के हमउम्र का ही था.उसका मित्र भी था.आज सुबह ही उन दोनों में हंसी ठिठोली भी हुई थी.
जिन्दगी का मोड़ कब किस क्षण किधर मुड़ जाये अज्ञात है.समय  बलवान होता है समय  पर आदमी सफल नहीं होने पर या तो वह हताश होेकर अपना इहलीला समाÄ कर लेता है या फिर सब्र से काम लेने समय  का इंतजार करता है.समय  वह धन है जो कुछ लेता है तो बहुत कुछ देता भी है.समय  परिवतर्नशील होता है.इस परिवतर्न को जो महसूस नही करता वह अमित के ही पद चि न्हों पर च लने बाध्य  हो जाता है.समय  और संघषर् का साथ साथ च लता है जो समय  के साथ संघषर् करने पर विश्वास रखता है उससे संघषर् हार जाता है और वह समय  पर विजय  पा लेता है.मगर जो संघषर् से आंखे चुराता है उसका इंतजार समय  भी नहीं करता है य ही कारण है कि कई संघषर् के बाद भी परितोष ने हार नहीं मानी और आज भी विजय  पाने समय  पर च ल रहा है जबकि अमित ने संघषर्  से डर कर अपना इहलीला समाÄ कर समय  से भी हार गया.
परितोष को अमित को साथ बिताये क्षण याद आने लगे.वह सोने का प्रयास करता रहा मगर वह सो नहीं सका.मां और सिदू की आंखें खुलुचुकी थी.बहन सिदू ने चाय  बनाकर परितोष को चाय  पीने बुलाने आयी.परितोष उसके साथ हो लिया.तीनों चाय  पीने लगे. मां ने पूछा- यिों परितोष, अमित ने आत्महत्या यिों की...?
- वह जीवन से उब चुका था मां.नौकरी खोजते खोजते वह परेशान हो चुका था.घर वाले उसे दिन रात कुछ कुछ कहते रहते थे.वह अपमानित जीवन जी रहा था.अपमानित जीवन जीने से अच्छा तो मर जाना हैं न मां...? परितोष ने कहा.
- गलत,अपमान से बच ने का य ह तरीका किसी भी क्स्थति मे ठीक नहीं.अपमानित व्य Iि ही संघषर् के बाद वह सम्मान पाता है जिसका वह कल्पना नहीं किया रहता.समय  के अनुसार सारे घाव भर जाते है.....।
समय  बीतता गया.अमित की याद सबकी मानस पटल से धूंधला गयी.एक समय  ऐसा आया कि प्राय : लोग अमित को भूल सा गये ठीक उसी प्रकार जैसे किसी व्य Iि के मरने के बाद उसे कु छ  दिनों बाद भूला दिया जाता है.
आषाढ़ का महीना था.च ौबीसों घ·टे बादल छाये रहते.सूय र् जाने कई दिनों से बादल के किस ओट में जा छिपा था कि उसके दशर्न ही दुलर्भ हो गया था.परितोष को सरकारी नौकरी नहीं मिल पायी थी. वह एक बतर्न की दुकान पर काम पर जाने लगा था.वह सरकारी नौकरी पाने भी प्रयास रहा था.
उस दिन वह दोपहर को घर आया. मां ने  परितोष को भोजन परोसते हुए पूछा- यिों रे परितोष ,कुछ रूपए तुम्हारे सेठ ने दिए..।
- नहीं मां...। परितोष भोजन का निवाला मुंह में डालतेे हुए कहा.
-खैर,कोई बात नहीं.कल तुम्हें साक्षात्कार में जाना है न.माधुरी के सामने अपनी समस्या को रखी तो उसने झट से पचास रूपए निकाल कर दी है.कह रही थी - मां जी दुनिया में भगवान किसी को जन्म देता है तो वह उसके पेट की भी व्य वस्था करता है.जब भी तकलीफ हो मुझसे कह दिया करो.मैं सहयोग करदिया करूंगी...पर बेटा उसे यिा पता कि पैसा ही आपस में फूट पैदा करता है.पर वह मानी नहीं उसने कहा मानव मानव का काम आये य ही दुनिया की सबसे बड़ी संपत्ति है .
माधुरी तो सेठ की कन्या पर उसके पिता जी और उसमें काफी असमानता थी.जहंा एक नंबर का कंजूस उसके पिता थे उससे कही ज्यादा कंजूसी में आगे उसकी मां थी.कंजूसी उन दोनों को ऐसा कोई भी काय र् करने से रोक देता था जो जनहिताथर् हो मगर उनकी पुत्री माधुरी उन दोनों के व्य वहार से एकदम अलग थी. वह सदैव दूसरों के हित की सोच ती.य ही कभी कभी सोच ने बाध्य  कर देता कि उनका खून होते हुए भी व्य वहार मे असमानता यिों ?संभव है रI एक होते हुए भी विचार में असमानता आ जाये य ही कारण ही तो था उनके माता पिता और माधुरीक के व्य वहार में असमानता का.इसे खानदान की देन न मान कर स्वयं के व्य क्तिव कहा जाये तो ठीक रहेगा.
समय  निकलता गया.एक अवसर ऐसा आया जब उसने बहन केे हाथ भी पीले कर दिया.अब मां भी बीमार रहने लगी थी. एक दिन उसकी मां भी इस दुनियां से सिधर गयी. इस क्षण को परितोष सुखद क्षण माने या दुखद क्षण यिोंकि जहां एक ओर मां की लाश पड़ी थी वहीं दूसरी ओर उसकी सरकारी नौकरी लगने की कागज पोýमेन थमा गया था.परितोष को मां की वह वायि  याद आने लगा जिसे उसने बार बार परितोष से कहा था-समय  पर सारे घाव भर जाते हैं.आदमी को अपने कमर् क्षेत्र मे डंटे रहना चाहिए उसे सफलता मिलती ही है....।
वास्तव में समय  पर उसे सफलता मिल गयी थी.उसका घाव तो भर गया था पर वह न जी भर कर रो पा रहा था और न हंस पा रहा था.....।

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