रविवार, 6 मार्च 2016

देवकुंवर

     सुरेश सर्वेद

     डबरी गाँव के बाहर एक झोपड़ी थी। उस झोपड़ी में एक महिला रहती थी। उस महिला का नाम देवकुंवर था। देवकुंवर के विषय में ग्रामीणों की धारणा कुछ अच्छी नहीं थी। ग्रामीण मानते थे  - वह सोधी हुई टोनही है। उसकी नजर जिस पर पड़ती है, वह समस्याग्रस्त हो जाता है। उसके परिवार में अनिष्ठ ही अनिष्ठ होता है। अमंगल ही अमंगल होता है। वह ग्रामीणों से उपेक्षित थी। अनादरित थी। वह चाह कर भी उस गाँव को त्याग नहीं सकी। वह उस गाँव में बहू बन कर आई थी। विवाह के कुछ महीने बाद उसके पति का निधन हो गया। उसके बाल बच्चे नहीं हुए थे। उस पर परिवार जनों द्वारा तरह तरह के आरोप लगाए गए। उसे घर परिवार, गाँव छोड़कर जाने विवश किया गया। पति के निधन के लिए भी उसे जिम्मेदार ठहराया गया पर सच्चाई कुछ और था।  उसने ठान ली थी कि डाोली आई है तो लाश भी इसी गाँव से निकलेगी। ग्रामीण उससे दूर भागते थे। उसे देखकर रास्ता बदल लेते थे। उसने गाँव के बाहर एक झोपड़ीनुमा मकान का निर्माण किया। वह उसी में रहने लगी। उसे गाँव के लोग काम नहीं देते थे। वह आस पास के गाँव में जाकर मजदूरी करती थी।
     उसी गाँव में एक ब्राम्हण परिवार रहता था। ब्राम्हण गाँव डबरी में यजमानी तो करता था, आस पास के गाँवों में भी उसकी यजमानी चलती थी। इसी से उस ब्राम्हण के परिवार का पालन पोषण होता था। ब्राम्हण की पत्नी भी देवकुंवर से भय खाती थी। गाँव की अन्य महिलाएं जैसे देवकुंवर को देखकर अपने बच्चे को  छिपा लेती थी, ब्राम्हण की पत्नी भी अपने बच्चे को छिपा लेती थी।
     उस वर्ष आकाल की आशंका सिपच रही थी। बारिस का माह था। आसमान साफ रहता था। बारिस की संभावना थम गई थी। अकाल की आशंका से सिर्फ किसान ही निराश नहीं थे, मजदूर वर्ग भी परेशान थे। देवकुंवर तक को उसने अपने लपेटे में ले लिया था।
     उस दिन देवकुंवर ब्राम्हण के घर पहुंच गई। ब्राम्हण के बच्चे छपरी में थे। बच्चे नंग - धड़ंग खेलने में मशगुल थे। देवकुंवर को देखकर ब्राम्हण और उसकी पत्नी हड़बड़ा गए। अवसर ऐसा था - बच्चों को छिपाना भी मुश्किल था। देवकुंवर ने आग्रह अनुग्रह का अवसर नहीं दिया। वह छपरी में ही बैठ गई। ब्राम्हण, देवकुंवर के समक्ष आया। भीतर के भूचाल को दबाते हुए पूछा - माई, यहां आना कैसे हुआ।
- महाराज, कुछ दिनों से मेरे मन में एक आकांक्षा जागृत हुई है। देवकुंवर ने कहा।
- कौन सी आकांक्षा ....। ब्राम्हण ने पूछा।
     छपरी से आकाश साफ - साफ दिख रहा था। देवकुंवर ने आकाश की ओर देखते हुए कहा - लगता है, इन्द्रदेव नाराज है। बारिस हो नहीं रही है। अकाल की संभावना बढ़ती जा रही है।
- हाँ माई, पर हम कर भी क्या सकते हैं?
- सोचती हूं, इन्द्रदेव को प्रसन्न करने पूजा - पाठ कराऊं। संभव है - जप - तप से बारिस हो जाये। मेरे हाथ कुछ जनहित का कार्य हो जाये।
     देवकुंवर की बात सुनकर ब्राम्हण के साथ उसकी पत्नी भी अवाक थी। जिस महिला के प्रति गाँव के सौ प्रतिशत लोगों में दुर्भावना थी। जिससे लोग कतराते थे। हेय - दृष्टि  से देखते थे। जिसकी छाया से ग्रामीण भय खाते थे। उसके मुख से गांव हित की बात निकलना आश्चर्य ही था। दोनों के मन में आया - वह महिला जो सदैव अपमान, निरादर का जीवन व्यतीत कर रही है, वह गाँव हित, जनहित की भावना रख सकती है। ब्राम्हण ने पूछा - मुझसे क्या चाहती है माई ?
- मैं जानती हूं, आप गरीब ब्राम्हण हैं। आप अन्न या द्रव्य सहयोग नहीं कर सकते। मैंने इधर - उधर से कुछ धन संग्रह किया है। संग्रहित धन इतना तो अवश्य है जिससे पूजा की सामाग्री खरीदी जा सके। ब्राम्हण को दक्षिणा दिया जा सके।
     ब्राम्हण और उसकी पत्नी देवकुंवर की बात सुनते रहे। देवकुंवर कहती चली गई - मैं चाहती हूं, यह पूजा पाठ तीन दिनों तक चले। आप पुजारी बने। इस अवधि में आप सपरिवार अन्न - जल मेरे घर में ही ग्रहण करें...। मैं इतना अवश्य जानती हूं- जिस प्रकार ग्रामीणों के मन में मेरे प्रति विचार है, आप लोग भी  उस विचार से मुक्त नहीं है। पर विश्वास है, आप मेरे आग्रह का अनादर नहीं करेंगेे।
     देवकुंवर अपनी बात रखी। उठी और अपनी झोपड़ी की ओर चल पड़ी। देवकुंवर चली गई थी। उसका प्रस्ताव ब्राम्हण के घर पड़ा था। ब्राम्हण और उसकी पत्नी में रायशुमारी चलने लगी। ब्राम्हण के परिवार का भरण पोषण पूजा - पाठ से होता था। फसल होगी तभी तो लोग पूजा पाठ करवाएंगे। ब्राम्हण परिवार के लिए अकाल मृत्यु दोनों ओर थी  - टोन्ही के खा जाने से या फिर अकाल की स्थिति में पूजा पाठ नहीं होने से। बार - बार उनके सामने यही बात उभरती रही कि देवकुंवर सोधी टोन्ही है। कई लोगों को उसकी नजर लग चुकी है। कई लोगों को वह खा गई है। उस महिला के प्रस्ताव को स्वीकार किया जाये या खरीज। बहस के बाद ब्राम्हण और उसकी पत्नी में एक राय बनी - क्यों न देवकुंवर के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जाये। ब्राम्हण ने देवकुंवर की झोपड़ी में पूजा - पाठ करने का निश्चय कर लिया। ग्रामीणों ने बहुत समझाने की कोशिश की गई। उसे व उसके परिवार को उस झोपड़ी में न जाने कहा गया पर ब्राम्हण नहीं माना। वह परिवार समेत झोपड़ी में पहुंच गया। देवकुंवर ने ब्राम्हण परिवार का स्वागत किया। कहा - मुझे विश्वास था, आप परिवार मेरे आग्रह को अस्वीकार नहीं करेंगे।
     देवकुंवर की जो तस्वीर गाँव में खीची गई थी। जिस प्रकार की कहानियाँ उसके प्रति गढ़ी गई थी, भांतियां फैलाई गई थी। ब्राम्हण व उसकी पत्नी देवकुंवर की झोपड़ी में पहुंचकर भी शंका - आशंका के बीच झूल रहे थे। ब्राम्हण ने देवकुंवर की आतिथ्य स्वीकारते हुए कहा - माई, आपके प्रति गाँव में कई तरह की चर्चाएं हैं, बावजूद मैं आपके आग्रह पर सपरिवार यहां आया हूं। आप अकेली हैंं। कहीं भी मजदूरी कर जीवन चला सकती हैं। मेरे पीछे चार और पेट हैं। आप किस उद्देश्य से ऐसा आयोजन कर रही हैं, आप ही जाने पर मेरा उद्देश्य एकदम साफ है - मैं अपने परिवा के हित के लिए आपकी बात स्वीकारी है। मैं और मेरा परिवार जाते जाते आपको उम्र भर स्वस्थ, सानंद, समृद्ध रहने का आशीष देते जायेंगे। मेरे परिवार का अहित न हो इसका आपको ख्याल रखना पड़ेगा।
     देवकुंवर ने कुछ नहीं कहा। वह ब्राम्हण परिवार को झोपड़ी के भीतर एक खोली में ले गई। वहां पूजा के समान रखे थे साथ ही ब्राम्हण परिवार के भोजन के लिए सामग्रियाँ रखी गई थी।
     पूजा शुरु हुई। झोपड़ी की खपरैल को पार कर हवन कुंड से धुआँ उड़ने लगी। शंख और घंटी के साथ ब्राम्हण का शास्त्र उच्चारण आकाश में तैरने लगा। गाँव में कौतुहल थी। ग्रामीण जानना चाहते थे - आखिर, देवकुंवर क्या करवा रही है? वह कौन सा अनुष्ठान करवा रही है? अनुष्ठान किस उद्देश्य से करवा रही है। गाँव के हित के लिए या अहित के लिए। ग्रामीण जानना चाहते थे पर अज्ञात आशंका और भय ने उन्हें रोक रखा था।
     आज पूजा - पाठ - हवन का तीसरा दिन था। सुबह से ही सूर्यदेव नदारत थे। काले - काले बादल आसमान में मंडरा रहे थे। हवा शांत थी। उमस की तीव्रता बढ़ गई थी। उमस की व्यापता के कारण ग्रामीण बेचैन थे। धरती की बेचैन भी बढ़ चुकी थी। शांत पवन, उमस की तीव्रता संकेत दे रही थी कि आज बारिस होकर रहेगी। देवकुंवर की झोपड़ी से झोपड़ी के खपरैल को चीरकर ब्राम्हण का मंत्रोच्चार और हवन कुंड का धुआँ आकाश की ओर गमन कर रहा था। पूर्णाहुति का समय जैसे - जैसे निकट आ रहा था, बादल की गड़गड़ाहट तेज होती जा रही थी। बिजली चमकने लगी थी। अंतिम पूर्णाहुति के साथ शंख, घंटी की ध्वनि जैसे - जैसे तेज हो रही थी - मेघ ज्योति कड़क रही थी। बादल तड़क रहे थे। कुछ ही देर में धरती की उमस मिटाने बूंदा बांदी शुरू हो गयी। धीरे - धीरे बिजली की कड़क और बादल की गरज के साथ मूसलाधार पानी बरसना शुरु हो गया।
     देवकुंवर मारे खुशी के झोपड़ी से बाहर निकल गई। वह बारिस में भींगने लगी। ग्रामीण आश्चर्य में थे। जहाँ वर्षा की कोई संभावना नहीं थी, वहां मूसलाधार बारिस शुरु हो गयी थी। किसान - खेतिहर मजदूरों की बांछे खिल गई। मुरझाये चेहरे पर मुस्कान तैरने लगी। किसान मजदूर भूल गये कि यह बारिस उस महिला कि तपस्या, जप, तप से हो रही थी, जिससे सब भय खाते थे। वे हल लेकर खेत की ओर दौड़ पड़े। उत्सुकता इतनी थी कि कई किसान धोती भर लपेटे खेत की ओर उस दिशा से दौड़ पड़े जिधर देवकुंवर की झोपड़ी थी। किसान, मजदूरों की पत्नियाँ हिदायत देती रही कि उघड़ा देह जाओगे तो देवकुंवर की नजर लग जायेगी पर किसी ने नहीं सुनी। उन्हें तो इसी क्षण की प्रतीक्षा थी। वे खेतों में पहुंच गये - खेत जोतने, बीज बोने, फसल उगाने ....।
     देवकुंवर खुश थी, बहुत खुश। उसने ब्राम्हण को दान दक्षिणा दी। ब्राम्हण परिवार अपने घर की ओर प्रस्थान करने लगे। इसी क्षण कुछ किसान देवकुंवर की दरवाजे पर आकर खड़े हो गये। देवकुंवर असमंजस में थी। वह परात भर प्रसाद ले आयी। ग्रामीण प्रसाद लेने हाथ बढ़ा दिये। देवकुंवर उन्हें प्रसाद देने लगी। ब्राम्हण ने कहा - माई की नजर लग गयी तो .....।
     किसी ने कहा - जब की तब देखा जायेगा। और उपस्थित ग्रामीण हंस पड़े । इसी के साथ बरस रहा पानी में सभी लोग नाचने लगे साथ ही देवकुंवर भी ....।    
गली नं: 5, एकता चौंक ,ममता नगर,
राजनांदगांव(  छत्‍तीसगढ़ )

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