शनिवार, 16 जुलाई 2016

आस्‍तीन का सांप

सुरेश सर्वेद 

       नगर निगम का चुनाव होने  वाला था.हम वार्ड क्र.तीन के सदस्य  थे.हमने अपने वार्ड के वीरेन्द्र से पार्षद पद के लिए चुनाव लड़ने कहा.उसने अस्वीकार दिया.कहा - मैं किसी पद के लिए नहीं लड़ना चाहता.पद में नहीं हूं फिर भी यथाशक्ति वार्ड वालों के लिए काम करता हूं.फिर पचड़ें में क्‍यों पड़ू ?''
        वास्तव में लोगों का कोई हमदर्द था तो वह था वीरेन्द्र.वह किसी की भी किसी भी समय सहायता करने तत्पर रहता.बीमार को अस्पताल ले जाना हो या फिर किसी के घर शादी बयाह हो वीरेन्द्र सबसे पहले और सबसे आगे होता.उलझन को सुलझाने में उसे समय  नहीं लगता था.ललित की पुत्री उमा की शादी उसी के कारण संपन्‍न हो सकी.जब तक सात फेरे न पड़ जाये लड़की के पिता नदी किनारे का पेड़ होता है.उसे चिंता रहती है कि बराती गड़बड़ी न कर दे . दूल्हा रूठ न जाये.उसके तो रूतबे का कहना ही क्‍या ? यार दोस्तों ने भड़काया कि कुछ भी मांग बैठते हैं.मांग पूरी नहीं हुई कि मंडप से भागने को तैयार . यही स्‍िथत ललित के घर भी निर्मित हो गयी.दूल्हें ने मौर - कटारी फेंक दी . कहा- मुझे मोटरसाइकिल चाहिए.नहीं दोगे तो शादी रद्द. '' सुनकर ललित की हालत खराब हो गई.वह मोटर साइकिल देने में असमर्थ . उसने कहा कि मुझसे पहले क्‍यों नहीं मांगी गयी.मेरे साथ धोखा हुआ है.मैं इसकी रिपोर्ट थाने में दर्ज करवाऊंगा.अब तो दोनों पक्ष महाभारत को खड़े हो गये.तभी वीरेन्द्र बीच में आ खड़ा हुआ. उसने कहा कि इससे दोनों पक्षों को हानि होगी.दूल्हा जेल जायेगा और दुल्हन रह जायेगी अविवाहित.ये झंझट यहीं खत्म करो.उसने ललित से कहा- मोटरसाइकिल की कीमत पचास हजार है.उससे आधा पच्‍चीस हजार.तुम पच्‍चीस हजार दे दो और पच्‍चीस हजार तुम्हारा दामाद देगा.''
       लो समझौता होकर रहा.बेचारे ललित की जग हंसाई बच  गई.लोगों ने आलोचना की कि  वीरेन्द्र तो दहेज विरोधी अभियान में अगुवा रहता है फिर उसने दहेज क्‍यों दिलवाया.आलोचक यह भूल गये कि यदि वीरेन्द्र ऐसा नहीं करता तो लड़की की शादी रूक जाती और उसकी जिन्दगी बर्बाद हो जाती.वीरेन्द्र ने मध्यस्थता करके ठीक ही किया.
       हम इसलिये तो वीरेन्द्र को चुनाव लड़वाना चाहते थे.किसी अच्छे कार्य को पूरा करने में उसके हिस्से बदनामी आती उसे भी वह सह लेता.वैसे एक उम्मीदवार और था - अरविन्द.वह पूर्व में पार्षद रह चुका था.उसका व्यवहार बड़ा रूखा था.मदद देने की बात तो दूर वह किसी से सीधे मुंह बात भी नहीं करता था.उसका चरित्र भी संदेहास्पद था.हमें हर हाल में अरविन्द का पत्ता साफ करना था.और वीरेन्द्र को पाषर्द बनना था.वीरेन्द्र ने बड़ी मुश्किल से हमारी बात मानी.वह चुनाव लड़ा और चुनाव समर में उसने विजय  श्री पायी.अरविन्द की ऐसी दुगर्ति हुई कि कई दिनों तक वह दिखा ही नहीं....।
       सड़क दुघर्टना में मेरे पति यशवंत की मौत हो गई.इसकी खबर मुझे मिली. मैं दौड़ी - दौड़ी वीरेन्द्र के पास गई . वह भोजन करने बैठ था . मैने कहा - मैं तो लूट गई.मेरे पति सड़क दुघर्टना में मारे गये.''
        वीरेन्द्र भोजन छोड़ उठ खड़ा हुआ.पूछा- कहां पर...।''
- एम.जी.रोड में...।'' मेरा उत्तर था.
       वीरेन्द्र ने जल्द हाथ धोया . कुर्ता पजामा पहना और मोटर साइकिल मे सवार होकर  घटना स्थल पर पहुंच  गया. 
       वहां भीड़ एकत्रित थी.पुलिस वैन में लाश रखी जा चुकी थी.उसे शव परीक्षण के लिए चीरघर ले जाया गया.शव परीक्षण बाद हमें सौप दी गई.वीरेन्द्र ने अंतिम संस्‍कार  के  कार्य में बराबर हाथ बंटाया.उसने अर्थी र्तैयार करवायी.हमें ढ़ांढ़स बंधवाया.
       मेरी पुत्री उषा बी.ए.द्वितीय वर्ष में थी.उसे मैं बहुत पढ़ाना चाहती थी मगर उसके पिता के निधन से आय  के श्रोत रूक गये.घर का खर्च मुश्किल से निकल रहा था.जैसे तैसे दिन कट रहे थे.
       एक दिन वीरेन्द्र आया . मैने उसे बैठने कहा . उसने कहा- मैं अभी जल्दी में हूं.तुम्हें ये रूपए देने आया हूं.''
       उसके हाथ में सौ सौ के नोट थे.मैं आश्चर्य  में थी . उसने कहा- तुम इस तरह क्‍यों देख रही हो.मैने ट्रक मालिक से लड़ झगड़ कर हर्जाना वसूला है . इन्हें रखो - पूरे पांच  हजार है.जब भी किसी काम की आवश्यकता हो मुझसे कहना.
       उसने रूपये थमाये और चला गया.
       मुझे तो वह देव तुल्य  लगने लगा था.श्रद्धा से मेरा मस्तक  झुक गया.उन रूपयों में से ऊषा के लिए पुस्तक कापियां ली . कालेज का शुल्क पटाया.आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति की . उधारी थी उसे पटाया.वीरेन्द्र के दिये रूपये कुछ ही दिनों में खत्म हो गये.पुन: पूर्व की तंगी आ धमकी.पर आये समय  पर मुझे विजय  पाना था.मैं उस संध्या उधेड़ बुन में थी कि ऐसा क्‍या किया जाये जिससे परिवार चल सके.मुझे रह - रह कर पति के साथ बिताये क्षण याद आ रहे थे . उनका चेहरा मेरी आंखों के सामने नाच  रहा था . मैं उन्हीं में लीन थी कि एक छाया मेरे पास आयी . मेरी तंद्रा टूटी . मैं हड़बड़ा कर उठ खड़ी हुई . अनायास मेरे मुंह से शब्‍द निकले- तुम....।''
- हां,अरी तुम चौंक क्‍यों गई.मैं अपरिचित तो हूं नही.''
       वीरेन्द्र ने मुस्करा कर जवाब दिया.मैं कुछ क्षण खड़ी रही . अचानक याद आया - मैंने उसे बैठने नहीं कहा है.मैं झेप गयी.कुर्सी की ओर संकेत करते हुए कहा- बैठिये न,मैं चाय  बना लाती हूं.''
       कुर्सी पर बैठते हुए उसने इधर उधर दृष्टि दौड़ाई .पूछा - ऊषा नहीं दिख रही,कहां गयी है ?''
- अपनी सहेली के घर ...।'' कहते हुए मैं चाय  बनाने चली गयी.
       चाय बनाकर लायी.उसने चाय  का घूंट लेकर कहा - सरकार विधवाओं को प्रतिमाह पेंशन दे रही है.तुम्हें भी मिल जाये तो...?''
- इसमें पूछना क्‍या ,मेरी स्‍िथति तुमसे छिपी नहीं है.बहुत अच्छा होगा..।'' वही जमीन पर बैठती हुई मैंने कहा.
       चाय  पी कर कप जमीन पर रखा.मैने अनुभव किया कि उसकी नजर मेरे शरीर पर है.मेरे भीतर एक प्रकार से अजीब हलचल होने लगी.मैं अब वहां से उठ जाना चाह रही थी कि उसने कहा-मालती,क्‍या तुम्हें पति विहीन जिन्दगी नहीं खलती...?
मैं खामोश रही.वह मुस्काया.उसने जेब से कुछ रूपये निकाले.मुझे जबरदस्ती थमा दिया.
        ऊषा को ज्ञात हो चुका था कि  वीरेन्द्र के साथ मेरा अवैध संबंध है.वह मुझसे घृणा करने लगी थी.मैंंने बुरा नहीं माना.वह समझदार थी.उसका विरोध जायज था.पर मैं करती भी क्‍या ? मुझे घर भी तो चलाना था.
       एक दिन  ऊषा ने कहा - मां अब बर्दाश्त से बाहर है . लोग हम पर ऊंगली उठा रहे हैं . हमें बदनामी से बचना चाहिये.मैं जानती हूं - हम आथिर्क  तंगी में है.मैं प्रेस में काम करने जाऊंगी.कुछ तो खर्च निकलेगा.''
- नहीं,मुझे यह पसंद नहीं.प्रकाशक संपादक तुम्हारी खूब सूरती निचोड़ लेगे.मैं तुम्हें कालगर्ल के रूप मेंं देखना नहीं चाहती.और फिर प्रेस में स्थायी जीविका नहीं मिलती.'' मैंंने उसे समझाया.
       ऊषा वीरेन्द्र को जब तब खरी खोटी सुना देती.वीरेन्द्र मुस्करा कर झेल लेता.
       उस दिन वीरेन्द्र मुझे रुपये देने हाथ बढ़ाये ही थे कि ऊषा आ धमकी। वही वीरेन्द्र पर टूट पड़ी - तुम यहां से चले जाओ। तुम समझते हो कि इन रुपयों से हमें खरीद लोगे। मैं अंतिम बार कह देती हूं - अब कभी इधर सूरत मत दिखाना। हमारा घर कोई चकला घर नहीं है ....।''
       वीरेन्द्र चुपचाप चला गया.
       मैं प्रसव पीड़ा से व्याकुल थी.मेरी सहायता के लिए कोई आया नहीं था.सभी तो मुझसे घृणा करते थे.करते भी क्‍यों नहीं,विधवा गर्भधारण करेगी तो लोग उससे घृणा ही करेंगे.उससे दूर ही रहना चाहेगे. बाहर बूंदाबंदी हो रही थी.बादल गरज रहे थे.बिजली चमक रही थी.जब भी पीड़ा बढ़ती तो मैं ईश्वर से प्रार्थना करती - हे प्रभू,बादल को जोरदार आवाज के साथ गरजने दे ताकि मेरी पीड़ा आवाज दब जाये.आखिर मैं पापिन हूं न,हरामी नवजात शिशु को जन्म देने वाली...एक लम्बी चीख के साथ मैंने एक बच्‍ची को जन्म दिया.वह खूबसूरत थी या बदसूरत यह नहीं बताऊंगी क्‍योंकि उसे तो बस नफरत ही मिलनी है.
       रात का समय  था.किसी ने दरवाजा थपथपाया.मैंने दरवाजा खोला.सामने वीरेन्द्र था.मैंने ऊषा के कमरे में झांककर देखा.वह नींद में थी.वीरेन्द्र मेरे साथ - साथ आया.साधिकार पलंग पर बैठ गया.पलंग पर मेरी नवजात कन्या अन्‍नू सोयी थी.उसने उसे स्पर्श करते हुए कहा - यही है न,हमारी बच्‍ची ?''
       उसके मुंह से '' हमारी '' शब्‍द निकलना मुझे अच्छा नहीं लगा.मुझे आश्चर्य  भी हुआ.उसने मुझसे कहा - तुम बोलती क्‍यों नहीं.क्‍या तुम मुझसे नाराज हो ?''
        उसने मुझे अपने पास खींच  लिया.इस स्पर्श में प्यार था या स्वार्थ मुझे समझ नहीं आया.मेरी आंखें छलछला आयी. मैंने पूछा - लोग पूछते हैं ,इस बच्‍ची के पिता कौन है,क्‍या मैं तुम्हारा नाम लोगों को बता दूं ?''
       उसने कहा- ओह् ! तुम परेशान क्‍यों होती हो ? लोग पूछते हैं तो पूछने दो.दूसरों के घर झांकने की लोगों की आदत बन चुकी है.तुम व्यर्थ की बातों में क्‍यों पड़ती हो....।''
- मगर...।''
-अगर -मगर कुछ नहीं,जब तुम दारिद्र जीवन जी रही थी तब तो किसी ने यह जानने का प्रयास नहीं किया कि तुम्हारे घर चूल्हा जला भी है या नहीं...।''
       उसने सौ - सौ के सात नोट मेरे हाथ में रख दिया और चलता बना.
       उस दिन मैं अन्‍नू को लेकर अस्पताल गयी थी.उसे गठिया हो गया था.उसके इलाज उपरांत घर लौटी.वहां दरवाजा बंद था.मैंने खिड़की से झांककर भीतर देखा .वहां ऊषा और वीरेन्द्र थे.वहां के दृष्‍य  का वर्णन किस मुंह से करूं ? उफ , कुछ मत पूछो...।''
       थोड़ी देर बात दरवाजा खोलकर वीरेन्द्र मेरे पास आया.उसने एक हजार रूपये मेरे हाथ में थमाये और शैतानी मुस्कान के साथ चलता बना.मैं रूपयों को देखती रही.मुझे समझ नहीं आ रहा था कि उन्हें फाड़कर फेंक दूं या फिर आड़े समय  के लिए सुरक्षित रख दूं....?

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