रविवार, 10 सितंबर 2023

डूबता सूरज

 

सुरेश सर्वेद
                        पात्र परिचय
श्रीकांत - एक कृषक/ छन्नू - मन्नू बैलों के मालिक
सुनंदा - श्रीकांत की पत्नी
निमेष - बैल व्यापारी
मनीष, अरुण, अमित, सरपंच अन्य ग्रामीण - गांव के लोग
पशु चिकित्सक - पशु चिकित्सक
कालू-  बूढ़े और असक्त जानवरों का क्रेता
सूत्रधार - सूत्रधार
सारांश
     गांव का किसान श्रीकांत नई '' बैल जोड़ी '' खरीदना चाहता है। वह आमगांव के '' बैल बाजार '' से '' बैल जोड़ी '' खरीद लाता है । उन बैलों का नाम छन्नू और मन्नू होता है। छन्नू - मन्नू युवा और हृष्ट  - पुष्ट है । छन्नू - मन्नू की फुर्तीली चाल और गठीले अंगों को देख कुछ ग्रामीणों को जलन होती है तो कुछ को प्रसन्नता। एक ग्रामीण, मनीष बैलों की कार्यक्षमता की परीक्षा लेना चाहता है। उस परीक्षा में बैल सफल हो जाते हैं।
     समीप ही '' बजरंगपुर '' गांव है। वह '' बैल दौड़ '' प्रतियोगिता होता है। उस प्रतियोगिता में श्रीकांत, छन्नू - मन्नू को नहीं ले जाना चाहता मगर अमित के कहने पर छन्नू - मन्नू को प्रतियोगिता में ले जाता है। उसमें छन्नू - मन्नू प्रथम पुरस्कार प्राप्त करते हैं।
     एक दिन श्रीकांत दूसरे गांव जाता है। छन्नू - मन्नू के देख रेख की जिम्मेदारी सुनंदा पर आ जाती है। सुनंदा बैलों को घास देने जाती है। धोखे से छन्नू के पैर से सुनंदा का पैर दब जाता है। सुनंदा बौखलाकर दिन भर बैलों को कुछ खाने ही नहीं देती।
     श्रीकांत वापस आता है। उसे मालूम होता है कि छन्नू  - मन्नू को दिन भर दाना पानी नहीं दिया गया तो वह सुनंदा पर बौखला जाता है।
इसी तरह दस वर्ष निकल जाते हैं। और छन्नू - मन्नू वृद्ध हो जाते हैं। श्रीकांत नये बैल खरीदना चाहता है मगर अरुण के कहने पर वह ट्रैक्टर खरीद लाता है।
घर में ट्रैक्टर आने से छन्नू  - मन्नू की उपयोगिता खत्म हो जाती है। उन्हें कोठे में छोड़ दिया जाता है जहां वे यातना की जीवन जीते हैं। मन्नू को '' तड़कफांस '' की बीमारी हो जाती है। इससे वह न पैरा - भूसा खा सकता था और न ही पानी पी सकता था। एक दिन मन्नू की मृत्यु हो जाती है ।
      मन्नू की मृत्यु की पीड़ा छन्नू के लिये असहनीय होती है । वह साथ बिताये दिनों की याद करता है और कोठे में छटपटाता है। स्वयं से लड़ता है।
     गांव में कालू आया है। वह असक्त एवं अपंग पशुओं के खरीददार है । श्रीकांत उससे छन्नू का मोल भाव कर लेता है। वह छन्नू को कालू के पास बेचने तैयार हो जाता है। कालू, छन्नू को लाठी से पीट और घसीटकर कोठे से बाहर निकालना चाहता है । कालू की निर्दयता से श्रीकांत की आत्मा कराह उठती है । वह कालू के रुपये लौटा देता है । श्रीकांत, छन्नू से बेचने से इंकार देता है ।
नाटक   
(सूत्रधार - श्रीकांत '' बैल जोड़ी '' खरीदना चाहता था। वह आमगांव का बैल बाजार से बैल खरीदना चाहता था। वह तैयार होकर अपनी पत्नी सुनंदा को आवाज दी)
श्रीकांत - सुनंदा, अरी सुनंदा थैली तो लेते आओ। बैल खरीदने बाजार जाने का समय हो गया है।
सुनंदा - अभी आयी (श्रीकांत के पास आकर) ऐ लो थैली। अब की बार ऐसी बैल जोड़ी लाना जो हृष्ट - पुष्ट और काम में फुर्तीले हो।
श्रीकांत - (सुनंदा के हाथ से थैली लेते हुए ) हां - हां, मैं वैसे ही बैल जोड़ी लाऊंगा, जैसे तुम चाहती हो।
(श्रीकांत आगे बढ़ता है)
सुनंदा - (ऊंची आवाज में) और हां, रुपये सम्हालकर रखना। बाजार - हाट में चोर - उच्चकों की कमी नहीं रहती।
श्रीकांत - हां -हां, मैं तुम्हारी बातें गांठ में बांध कर रखूंगा । तुम निश्चिंत रहो ।
(दृष्य परिवर्तन)
(आमगांव का '' बैल बाजार '' । वहां गहमा - गहमी है। बैल खरीदने - बेचने की आवाजें उभर रही है। श्रीकांत '' दावन '' में बंधे बैलों को देखता - परखता है। उसकी दृष्टि दो बैलों पर जा टिकती है। वह बैल व्यवसायी निमेष से बैलों की ओर संकेत करके पूछता है )
श्रीकांत - निमेष, इन बैलों की क्या कीमत है ?
निमेष - कीमत कुछ अधिक नहीं । दोनों बैलों की कीमत मात्र बीस हजार रुपये है ।
श्रीकांत - तुम बहुत ज्यादा कीमत आंक रहे हो । कीमत सुनकर खरीददार भाग जायेगा। लेन -देन की बात करो ।
निमेष - तुम लेना ही चाहते हो तो इस बैल जोड़ी को अट्ठारह हजार में दे सकता हूं । इससे एक पैसा कम नहीं लूंगा । वैसे तुम भी मांग सकते हो ।
श्रीकांत - मैं पन्द्रह हजार तक खरीदने के पक्ष में हूं । यदि जम रहा हो तो '' दावन '' ठोंक दो ।
निमेष - नहीं रे भाई, नहीं । एक हजार और कम कर सकता हूं, अर्थात सत्रह हजार लगेंगे । एक बात गांठ में बांध कर रख लो, तुम्हें इतने सस्ते में ऐसे कमाऊ बैल कहीं नहीं मिलेंगे। ( निमेष एक बैल की पीठ ठोंकता है । बैल ऊपर की ओर उचकता है) देखा, छुआ नहीं कि बैल फुर्ती दिखाने लगा। इसका नाम छन्नू है । (पास ही बंधे दूसरे बैल की पूंछ ऐंठता है। बैल मचलता है) यह मन्नू है । इन दोनों की पटती भी खूब है । अलग - अलग बांध दूं तो ये '' दावन '' तोड़ देंगे। विश्वास करो - ये अपने परिश्रम से तुम्हारे रकम एक वर्ष में ही लौटा देंगे ।
श्रीकांत - (मन ही मन बुदबुदाता है) इसे तो मैं भी जानता हूं, तभी तो इन्हें खरीदना चाहता हूं । (निमेष से) तुम सोलह हजार में देना चाहते हो तो दे दो।
निमेष -कुछ सोच - समझकर मांगों ।
श्रीकांत - मुझे जो मांगना था, मांग लिया ।
निमेष - तुम नम्बर एक कंजूस निकले ।
(निमेष '' दावन '' ठोंक देता है । बैलों को '' दावन '' से खोल श्रीकांत को थमाते हुए) तुम इस व्यवसायी निमेष का क्या नाम लोगे,लो, सम्हालों अपने बैल ।
श्रीकांत - (रुपये देते हुए) ये रहे तुम्हारे रुपये। गिन लो - पूरे रुपये है कि नहीं ।
निमेष - (रुपये गिनता है) एक ...दो .... तीन ....चार ....(श्रीकांत से) पूरे के पूरे हैं ।
श्रीकांत - तो अब चलता हूं ...।
निमेष - हां हां, और कभी सेवा की जरुरत पड़ी तो बताना ।
श्रीकांत - ठीक है ...।
(श्रीकांत बैलों को हंकालता है । अपने गाँव की ओर चल पड़ता है)
दृष्य परिवर्तन
(बीच रास्ते में भाटागाँव पड़ता है । एक स्थान पर कुछ ग्रामीण खड़े हैं । श्रीकांत बैलों के साथ उनके पास से निकलने लगता है । ग्रामीण बैलों को देखते हैं )
एक ग्रामीण - (श्रीकांत से) ये बैल कहां से ला रहे हो । इन्हें कितने में खरीदा ।
श्रीकांत - (ग्रामीण से) आमगांव के बैल बाजार से खरीदा हूं । पूरे सोलह हजार पड़े हैं भाई ।
दूसरा ग्रामीण - सस्ते में पा गये ।
श्रीकांत - (हंस कर) सस्ते कहां । सोलह हजार कोई छोटी रकम है ।
पहला  - चिंता क्यों करते हो । ये सोलह के बत्तीस हजार एक ही वर्ष में कमा कर देगें ।
श्रीकांत - सो तो ठीक है ...।
(श्रीकांत बैलों को हकाल कर आगे की ओर बढ़ जाता है)
श्रीकांत - (छन्नू - मन्नू से) अभी तो आठ किलोमीटर का रास्ता शेष है । चलते - चलते मेरे पैरों में दर्द भर गया है । इच्छा हो रही है  - घना वृक्ष के तले बैठ कर थोड़ा आराम कर लूं । तुम लोगों को भी आराम मिल जायेगा । मगर घर शीघ्र पहुंचने का उमंग आराम करने की अनुमति नहीं दे रही है ।
(सूत्रधार  - बैल श्रीकांत की बात सुनकर अपनी भाषा में एक दूसरे से बातें करते हैं । )
मन्नू - (छन्नू से) मित्र छन्नू, तुमने सुना - मालिक क्या कह रहे हैं। देखो तो इनकी चाल, कैसी ढीली पड़ गई है। लगता है - ये बुरी तरह थक गये हैं।
छन्नू - (मन्नू से थकी आवाज में) मन्नू, चलना भी तो बहुत पड़ रहा है। सच कहूं - मुझे भी थकान महसूस हो रही है।
मन्नू - क्या कहा छन्नू ? तुम थक गये। अपना निकम्मापन प्रदर्शित करना चाहते हो । यदि तुमने आराम की सोची तो मालिक को संदेह हो जायेगा कि हम कामचोर है । अभी हम युवा हैं। फिर थकने का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता ।
छन्नू  - मैं तो तुम्हारी परीक्षा ले रहा था ।
मन्नू  - तुम मेरी क्या परीक्षा लोगे ? मैं सारी दुनियां को दौड़ लगा आऊंगा, फिर भी जीत मेरी ही होगी । अविश्वास हो तो दौड़ कर देख लो ।
छन्नू - तो देर किस बात की, स्पर्धा हो ही जाये ।
(छन्नू - मन्नू पूंछ उठाकर दौड़ने लगते हैं)
श्रीकांत - (छन्नू  - मन्नू के पीछे दौड़ते हुए ) अरे भई, इतना मत दौड़ों । मैं तुम लोगों के साथ नहीं दौड़ सकता । (श्रीकांत स्वयं से) लगता है, इन पर जिद्द सवार है (श्रीकांत के हांफने की आवाज, वह रेंगना शुरु कर देता है) दौड़ो बेटे, दौड़ो । इतना दौड़ो कि लोग दांतों तले ऊंगली दबा ले । मैं कहने नहीं चूकूगा कि जीत हुई तो छन्नू - मन्नू की, हार हुई तो मेरी ...।
दृष्य परिवर्तन
(श्रीकांत बैल जोड़ी के साथ अपने गांव के निकट पहुंच जाता है । एक स्थान पर कुछ ग्रामीण हैं। वे श्रीकांत के साथ हो लेते हैं।)
सरपंच - क्यों श्रीकांत, आखिर तुमने बैल ले ही आया ।
श्रीकांत  - बैल नहीं लाता तो खेती कैसे करता सरपंच महोदय । ठीक कहा न मनीष ।
मनीष  - हां - हां, तुम्हारा कहना उचित ही है। इस बार तो तुमने जानदार बैल जोड़ी लाये हो श्रीकांत ।
सरपंच - (मनीष से) मनीष,साल - साल बैल लेने से तो अच्छा यही होता है-जो लो, एक बार लो। भले कीमत अधिक लगे । अब श्रीकांत को कम से कम दस वर्ष तक तो बैल खरीदने - बेचने के पचड़े में पड़ना नहीं पड़ेगा ।
श्रीकांत  - ( सरपंच से) तुम्हारा आंकलन ठीक है सरपंच महोदय ।
( श्रीकांत, बैल जोड़ी एवं ग्रामीणों के साथ अपने घर के निकट पहुंच जाता है । दरवाजे के नजदीक पहुंच कर अपनी पत्नी सुनंदा को आवाज देता है)
श्रीकांत - सुनंदा, अरी सुनंदा ...।
सुनंदा  - (घर भीतर से आवाज देती है) अभी आयी ...।
श्रीकांत - खाली हाथ ही न आ जाना। नारियल आरती लेते आना ...।
(सुनंदा आरती नारियल ले कर आती है। वह बैलों के माथे पर टीका लगाती है । आरती उतारती है । नारियल श्रीकांत को देती है)
सुनंदा - लो ये नारियल फोड़ लोगों में प्रसाद बांट दो ।
(नारियल फुटता है । श्रीकांत लोगों में प्रसाद बांटता है । वह बैलों को आंगन में ले जाकर बांधता है। ग्रामीण भी आंगन में आ जाते हैं।)
श्रीकांत -(सुनंदा से) सुनंदा, बैलों के सामने हरी - हरी घास डाल दो। ये भूखे हैं ।
(सुनंदा बैलों के सामने घास डालती है। बैल घास चबुलाने लगते हैं)
सरपंच - (श्रीकांत से) श्रीकांत, मैंने बहुत बैल देखे पर ऐसे बैल नहीं देखा। देखो तो बस देखते रहने की इच्छा होती है ।
मनीष - (सरपंच से) सरपंच काका, बैल अभी - अभी आये और इन्हें हरी - हरी घास खाने मिल गया। आप श्रीकांत के बैलों की प्रशंसा ही न करें। श्रीकांत से कुछ खर्च भी करवाइये ।
सरपंच - (श्रीकांत से) मनीष का कहना उचित है श्रीकांत। अब तुम ही बताओ, इस खुशी के अवसर पर क्या खिलाओगे। स्पष्ट कर ही दो ।
श्रीकांत - (सरपंच से) अब मैं क्या बताऊं सरपंच महोदय,सारे रुपये तो छन्नू - मन्नू पर उड़ेल आया ।
अरुण - ये रही कंजूसी की बात। लगता है - अब श्रीकांत भूखा ही रहेगा ...।
(सभी ग्रामीण खिल खिलाकर हंस पड़ते हैं। हंसी थमती है)
मनीष - अरुण, अब श्रीकांत भूखा रहे या उपवास करे इससे हमें क्या ? श्रीकांत से पार्टी लेने का अधिकार तो हम लोगों का बनता ही है। श्रीकांत को हम लोगों को पार्टी देनी ही होगी ।
श्रीकांत - ठीक है, कल दे दूंगा पार्टी ?
अरुण - कल क्यों ? पार्टी तो अभी होनी चाहिए। क्यों सरपंच काका ?
सरपंच - (श्रीकांत से) हां श्रीकांत, अरुण का कहना उचित है । देर होने पर उत्साह किरकिरा हो जाता है । (ग्रामीणों से) क्यों भाईयों, मैंने उचित कहा न?
सभी ग्रामीण - (एक स्वर में) हां  - हां, पार्टी तो अभी होनी चाहिए ।
श्रीकांत -  (ग्रामीणों से) ठीक है, तुम सबका एक राग है तो मुझे भी स्वीकार है। (सुनंदा से) क्यों सुनंदा, ग्रामीण क्या कह रहे हैं - तुम सुन रही हो न ?
सुनंदा- ठीक ही तो कह रहे हैं ।
श्रीकांत - तो बना डालो, खीर - पुड़ी ।
(सुनंदा,पाकगृह में चली जाती है। श्रीकांत छन्नू की पीठ सहलाने लगता है । मन्नू, श्रीकांत के शरीर से अपना शरीर घसीट देता है)
श्रीकांत - (मन्नू से पुचकार कर) क्यों मन्नू, छन्नू को सहलाते तुमसे देखा नहीं गया ? लो तुम्हें भी सहला देता हूं ।
(श्रीकांत, मन्नू को सहलाने लगता है, उसी समय अमित प्रवेश करता है। वह हांफ रहा है ।)
मनीष - (अमित से) अमित, तुम इतना हांफ क्यों रहे हो। मैंने तो तुम्हें बैलगाड़ी से धान लाने भेजा था । मगर तुम यहां क्यों आये। क्या धान ले आये ?
अमित - नहीं ...।
मनीष - क्यों ...?
अमित - तुम यहां श्रीकांत के बैल जोड़ी देख रहे हो। उधर तुम्हारी गाड़ी नाले में फंस गई है ।
मनीष - (हड़बड़ा कर) क्या कहा, गाड़ी नाले में फंस गई है ?
अमित - हां - हां, तुम्हारे बैल गाड़ी को खींच नहीं पा रहे हैं ।
मनीष  - तो दूसरों के बैल मांग कर क्यों नहीं ले जाते ?
अमित - गांव के प्रायः सभी बैलों से कोशिश की जा चुकी है, गाड़ी टस से मस नहीं होती ।
मनीष - (श्रीकांत से) श्रीकांत, तुम अपने बैलों को वहां ले चलो। इनकी कार्यक्षमता की परीक्षा भी हो जायेगी ।
श्रीकांत - नहीं रे भइया, ये अभी थके हैं। इन्हें अभी आराम की आवश्यकता है ।
मनीष - (टंट कसता है) तो क्या इन्हें दिखाने के लिए लाये हो । क्यों सरपंच काका, मैं ठीक कह रहा हूं न ?
सरपंच -(श्रीकांत से) मनीष ठीक ही तो कह है श्रीकांत । हम भी देख लेंगे इनकी कार्यक्षमता (ग्रामीणों से) क्यों भईयों, मैंने उचित कहा न ?
ग्रामीण - हां - हां, मनीष और सरपंच का कहना उचित ही है ।
श्रीकांत  - ठीक है, जब तुम सबकी एक ही राय है तो मैं भी मान ही लेता हूं ।
दृष्य परिवर्तन
(नाले के पास ग्रामीण बैल जोड़ी को लेकर आते हैं। वहां एक गाड़ी जिसमें लबालब धान की फसल भरी है। वह नाले के चढ़ाव में अटकी पड़ी है, उसमें छन्नू - मन्नू को जोता जाता है। बैलों को गाड़ी खींचने हांकते है - '' हो - हो, ढिर्र ... दिर्र ... '' छन्नू -मन्नू जोर लगाकर गाड़ी को खींचते है। वे एक - दो कदम चढ़ने के बाद पुनः पीछे हो जाते हैं। फसलों से भरी गाड़ी जहां के तहां आ जाती है)
मनीष - (श्रीकांत से) श्रीकांत, तुम्हारे बैलों का काम दिख गया। थोड़े से चढ़ाव को भी पार नहीं कर पा रहे हैं ।
सूत्रधार - छन्नू, मन्नू की ओर देखता है। वे ताव में आ जाते हैं। वे एक साथ सामने के पैरों को मोड़ते हैं । पीछे के पैरों से बल देते हैं। फिर सामने के पैरों को शीघ्र उठा लेते हैं । वे गाड़ी को नाले के ऊपर खींच लेते हैं। छन्नू - मन्नू हांफने लगते हैं, मगर  वे गाडी को ऊपर खींच ही लेते हैं ।
मनीष - (श्रीकांत से) श्रीकांत, वास्तव में तुम्हारे बैलों की कार्यक्षमता सराहनीय है ।
सरपंच - (श्रीकांत से) हां श्रीकांत, देखो न ये हाँफ रहे हैं । इनके मुंह से झांक निकल गये मगर इन्होंने गाड़ी को नाले से ऊपर खींच ही लिया ।
अरुण - अब चलो, श्रीकांत के घर का भोजन ठंडा न हो जाये।
सभी ग्रामीण - चलो,चलो ....।
(सभी ग्रामीण, श्रीकांत के घर आते हैं । श्रीकांत, छन्नू - मन्नू को यथा स्थान बांध देता है ।)
श्रीकांत - (पाकगृह की ओर देखते हुए) सुनंदा, भोजन तैयार हो गया क्या ?
सुनंदा - (पाकगृह से) हां हो गया है ।
श्रीकांत - (ग्रामीणों से) लो भाइयों, बैठो, अरुण चलो तुम भोजन परोसने में मेरी सहायता करो ।
अरुण - ठीक है ...।
सरपंच - (श्रीकांत से) श्रीकांत, पहले हम लोगों को भोजन न परोस देना। सबसे पहले छन्नू - मन्नू को भोजन देना फिर हमें ।
श्रीकांत - (सरपंच से) आप ठीक कह रहे हैं सरपंच काका,मैं दो थालियों में अलग से निकलवा लिया हूं (खीर - पुड़ी, छन्नू - मन्नू को देते हुए) लो खाओ ...।
(छन्नू - मन्नू खीर पुड़ी खाने लगते हैं। ग्रामीणों को भी खीर - पुड़ी परोसा जाता है । वे भी खाने लगते हैं )
श्रीकांत - लो सरपंच काका, दो पुड़ी और लो ...
सरपंच  - (डकारते हुए) नहीं - नहीं, बहुत हो गया...।
श्रीकांत - लो भी, दो पुड़ी कोई अधिक नहीं होता ...।
अमित - ( पुड़ी चबाते हुए) खाओ न काका, रोज - रोज तो ऐसा अवसर आता नहीं है ...
(इस तरह ग्रामीण भर पेट पुड़ी खीर खाते हैं)
दृष्य परिवर्तन (कुछ दिन बाद)
(प्रातः का समय, श्रीकांत कोठे में जाता है। वहां छन्नू  - मन्नू है । श्रीकांत देखता है - छन्नू सुस्त बैठा है । श्रीकांत छन्नू के पास जाता है । उसके पास बैठ जाता है)
श्रीकांत - (छन्नू के गले में हाथ फेरते हुए) छन्नू, तुम गुमसुम क्यों बैठे हो? कही तुम्हारी तबियत खराब तो नहीं .. मुझे लगता है - जरुर तुम्हारी तबियत खराब हो गयी है। (उठते हुए) मैं जाता हूं, अभी चिकित्सक को बुला ले आता हूं।
(श्रीकांत, कोठे से बाहर आता है । सुनंदा से)
श्रीकांत - सुनंदा, अरी ओ सुनंदा ...।
सुनंदा - क्या है ...?
श्रीकांत - लगता है, छन्नू की तबियत गड़बड़ा गई है। मैं पशु चिकित्सक को लाने जा रहा हूं । तुम बैलों का ध्यान रखना ।
सुनंदा - ठीक है ...।
(श्रीकांत अपने घर से निकल जाता है)
दृश्य परिवर्तन
(पशु चिकित्सक का निवास स्थान)
पशु चिकित्सक - (श्रीकांत से) कहो श्रीकांत, कैसे आना हुआ ।
श्रीकांत - जल्द मेरे साथ चलो,
पशु चिकित्सक - अरे बात क्या है, कुछ तो बताओ ।
श्रीकांत - पता नहीं छन्नू को क्या हो गया है ? वह सुबह से ही शांत और सुस्त बैठा है ।
पशु चिकित्सक - अच्छा ...।
श्रीकांत - हां, चलो मेरे साथ, देर न करो ...।
पशु चिकित्सक - दवाइयों का बैग तो पकड़ लेने दो । (दवाइयों का बैग सम्हाल कर) चलो ...।
दृष्य परिवर्तन
(श्रीकांत का घर,पशु चिकित्सक, श्रीकांत के साथ घर में प्रवेश करते हैं । वे बैलों के पास आते हैं)
पशु चिकित्सक - मैं छन्नू का जांच करता हूं । (पशु चिकित्सक, छन्नू को जांचता है)
श्रीकांत - कैसे डाक्टर साहब, क्या हुआ है, छन्नू को ...।
पशु चिकित्सक - (बैग को हाथ में लेकर हंसते हुए) श्रीकांत, खुद परेशान होते हो तो होते हो । मुझे भी परेशान कर देते हो । छन्नू को कुछ नहीं हुआ है । आलस्य के कारण शांत बैठा है । दरअसल तुम्हें बैलों से अत्याधिक लगाव है, यही वजह है कि तुम्हारे बैलों को कुछ हुआ नहीं कि परेशान हो जाते हो । (पशु चिकित्सक छन्नू की पूंछ पकड़ कर ऐंठ देता है । छन्नू रटपटा कर उठ खड़ा होता है । वह घास खाने लगता है) देखा न श्रीकांत, कैसे फुर्ती से उठ गया ।
श्रीकांत - (छन्नू को सहलाते हुए) नटखट, मैं तो घबरा ही गया था ।
(पशु चिकित्सक और श्रीकांत कोठे से आंगन में आते हैं। दीवार से सट कर रखी खाट को श्रीकांत बिछाते हैं । )
श्रीकांत - (खाट की ओर इशारा करते हुए पशु चिकित्सक से) बैठो डाक्टर साहब । ( फिर अपनी पत्नी सुनंदा को आवाज देता है, पशु चिकित्सक खाट में बैठ जाता है । ) सुनंदा,चाय बन गयी हो तो ले आओ ...।
(सुनंदा दो कप चाय ले आती है ।)
सुनंदा - लो, चाय लो ...।
(श्रीकांत और चिकित्सक एक - एक कप चाय उठा पीने लगते हैं । सुनंदा पाकगृह की ओर जाने लगती। श्रीकांत सुनंदा से कहता है । )
श्रीकांत - मेरे कपड़े और थैली ले आओ ।
सुनंदा - अभी लायी ...(सुनंदा एक थैली और श्रीकांत के कपड़े लाकर देती है) ये लो थैली और कपड़े ...।
(श्रीकांत और पशु चिकित्सक चाय पी चुके हैं। वे कप को नीचे रख देते हैं ।)
पशु चिकित्सक  - श्रीकांत, अब मैं निकलता हूं, और कोई बात होगी तो मुझे बताना ...।
श्रीकांत - अच्छा डाक्टर साहब। (पशु चिकित्सक श्रीकांत के घर से निकल जाता है। श्रीकांत, सुनंदा से) सुनंदा, संभव है आज लौटने में शाम हो जाये। तुम छन्नू - मन्नू का ध्यान रखना। समय पर दाना - पानी देना। (श्रीकांत आगे बढ़ते - बढ़ते फिर रुक जाता है) सुनंदा, छन्नू - मन्नू को थोड़ा भी कष्ट न होने देना ...।
सुनंदा - (हंसकर) तुम तो जाओ, छन्नू - मन्नू की चिंता मुझे भी है...। (श्रीकांत आगे बढ़ जाता है। सुनंदा पाकगृह में आ भोजन बनाने लगती है।)
दृश्य परिवर्तन
(दोपहर का समय, सुनंदा चांवल साफ कर रही है तभी बैल च्च् हम्मा- हम्मा ज्ज् चिल्लाते हैं। आवाज सुनंदा के कानों तक पहुंचती है।)
सुनंदा - (स्वयं से) लगता है, छन्नू - मन्नू के पास घास नहीं है। चलो, उन्हें घास दे आती हूं।
(सुनंदा, हरी - हरी घास लेकर कोठे की ओर जाती है। सुनंदा बैलों के सामने हरी - हरी घास डालना चाहती है कि छन्नू हरी घास देखकर, सुनंदा की ओर लपटकता है। उसका पंजा (खुर) सुनंदा के पैर ऊपर आ जाता है।)
सुनंदा - (दर्द से बिलबिलाकर) दइया रे,छन्नू ने तो मेरा पैर ही कुचल डाला, यह तो बहुत ही निष्ठुर है।
(छन्नू तत्काल अपना पैर उठा लेता है। सुनंदा क्रोधित हो जाती है। वह घास को हाथ में रखे ही वापस होने लगती है) अब मरो भूखे ...। (सुनंदा घास को आंगन के कोन्टे में पटक देती है। वह लंगड़ाती, कराहती है)
(इधर मन्नू, छन्नू से रुष्ट हो जाता है।)
मन्नू - (छन्नू से) छन्नू, तुमने मालकिन के पैर को क्यों आहत किया ? अब मरो भूख .. मालकिन हमारी सेवा करती है और तुमने उसे पीड़ा पहुंचायी । तुम तो कोड़े खाने लायक हो ...।
छन्नू  - तुम गलत अर्थ लगा बैठे मन्नू, यह धोखे में हुआ ...।
मन्नू - असत्य  ... मुझसे धोखा क्यों नहीं हुआ ...।
छन्नू  - मित्र, मुझे जोरों से भूख लगी है?
मन्नू - तो मैं क्या करुं ? भुगतो अपने कर्म का फल।
छन्नू  - चलो, मैं अपनी गलती स्वीकारता हूं। अब मान जाओ। मालकिन से तुम्हीं घास मांगों । मुझसे वह रुष्ट है।
मन्नू - मैं भूख से मर जाऊँगा पर भोजन नहीं मांगूगा।
छन्नू - मान भी जाओ मित्र, भविष्य में ऐसी गलती नहीं होगी।
मन्नू - ठीक है ...।
(छन्नू और मन्नू '' हम्मा  - हम्मा ''   चिल्लाते हैं। सुनंदा छपरी में बैठी आहत पैर की सिंकाई कर रही है। बैलों की आवाज उस तक पहुंचती है)
सुनंदा - (सिंकाई करती हुई) रहो भूखे, घास नहीं दूंगी मतलब नहीं दूंगी।
(छन्नू - मन्नू चिल्लाते - चिल्लाते थक जाते हैं।)
छन्नू - (मन्नू से) मन्नू, मालकिन तो बहुत ही नाराज हो गयी है।
मन्नू - हाँ, मालिक भी नहीं आ रहे हैं।
(छन्नू - मन्नू मुंह लटकाकर बैठ जाते हैं)
दृष्य परिवर्तन
(संध्या का समय - श्रीकांत घर में प्रवेश करता है। सुनंदा छपरी में बैठी चांवल साफ कर रही है।
श्रीकांत - (श्रीकांत थैली उसके पास रखता है। सुनंदा से कहता है।) इसमें ताजी सब्जी है। क्या बनाना है देख कर बना लेना। और छन्नू मन्नू का क्या हाल है।
(श्रीकांत कोठे में आता है। छन्नू - मन्नू मुंह लटकाये बैठे हैं। श्रीकांत उनके पास बैठ जाता है)
श्रीकांत - (छन्नू के सिर पर हाथ फेरते हुए) छन्नू, तुम्हें कोई कष्ट तो नहीं न?
मन्नू - (श्रीकांत के क्रिया को देख मन्नू मन ही मन बुदबुदाता है) छन्नू की गलती के कारण अब तक भूखा रहना पड़ा और मालिक है कि उसी से हालचाल पूछ रहे हैं।(मन्नू क्रोधित हो जाता है। वह जोर से सिर हिलाता है। श्रीकांत मन्नू की ओर उन्मुख होता है। उसके मुंह पर हाथ फेरता है)
श्रीकांत - (मन्नू को पुचकार कर) मन्नू, इतनी नाराजगी क्यों? सुनंदा ने तुम्हें तंग तो नहीं किया ..?
(श्रीकांत इधर - उधर देखता है। वहां घास नहीं है। पास रखी बाल्टी को झांककर देखता है। उसमें पानी नहीं है)
श्रीकांत - (सुनंदा को आवाज देता है) सुनंदा, अरी सुनंदा, इधर आओ तो ...।
सुनंदा  - अभी आयी ...।
(सुनंदा लंगड़ाती श्रीकांत के पास आती है।)
सुनंदा  - क्यों चिल्ला रहे हो?
श्रीकांत - (छन्नू - मन्नू की ओर संकेत करते हुए ) तुमने इन्हें कुछ खाने नहीं दिया। देखो तो इनके पेट कितना चिपक गया है।
सुनंदा - (श्रीकांत को आहत पैर दिखाती है।) घास डालने आयी थी तो (छन्नू की ओर संकेत करते हुए) छन्नू ने मेरे पैर पर चोट पहुंचाया।
श्रीकांत - तुम्हें थोड़ी सी चोट क्या लगी, इन्हें कठोर दण्ड देने उतारु हो गयी। तुम बड़ी क्रूर हो ?
सुनंदा - तुम्हें चोट लगी रहती तो समझ आता (सुनंदा लंगड़ाती वापस छपरी की ओर बढ़ती है) चोट खाकर भी इनसे लाड़ प्यार करना ही है तो तुम ही करो, मुझसे ऐसा नहीं होगा।
(श्रीकांत आंगन में आता है। वहां रखी घास को लेकर कोठे में लाकर बैलों के सामने डालता है। बाल्टी उठाकर उसमें पानी भर कर लाकर उनके सामने रख देता है। बैल चुपचाप ही बैठे रहते हैं। बैलों की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। श्रीकांत बैलों के पास बैठ जाता है)
श्रीकांत - (छन्नू - मन्नू से) अगर तुम नहीं खाओगे तो मैं भी भूखा ही रहूंगा।
(छन्नू, मन्नू की ओर देखता है।)
छन्नू - (मन्नू से) मन्नू, देखते हैं - ये कब तक नहीं खायेंगे।
(सुनंदा भोजन तैयार कर चुकी है। वह श्रीकांत को भोजन के लिए आवाज देती है)
सुनंदा - तुम वहां बैठे क्या कर रहे हो? भोजन तैयार हो चुका है। भोजन करने आओ ...।
(आवाज सुनकर भी श्रीकांत  चुपचाप बैठा रहता है। मन्नू, छन्नू की ओर देखता है)
मन्नू - लगता है, मालिक अपनी प्रतीज्ञा साकार करेंगे?
छन्नू - हां, मालिक हमसे बेहद प्रेम करते हैं। यदि हमने इनकी बात नहीं मानी तो इन्हें पीड़ा होगी।
मन्नू - तो हमें घास खा लेना चाहिए ...।
छन्नू - बिलकुल ...
(बैल खड़े हो जाते हैं। वे घास खाने लगते हैं। श्रीकांत खुश हो जाता है)
श्रीकांत - (बैलों की पीठ थपथपाकर) शाबाश, बड़े समझदार हो। हां, छोटी  - छोटी बातों पर नाराज न हुआ करो ...। अब मैं भी भोजन करता हूं ...।
(श्रीकांत कोठे से निकल कर भोजन करने आ जाता है)
श्रीकांत - (सुनंदा से) सुनंदा, चलो, भोजन निकालो ...।
दृष्य परिवर्तन
(सुबह का समय - आंगन में खाट डाल है। श्रीकांत उसमें बैठा है। उसी समय अमित उसके घर आता है)
श्रीकांत - (अमित से) आओ अमित, बैठो ...।
अमित - श्रीकांत, तुम चुपचाप यहां बैठे हो? क्या तुम्हें पता नहीं, आज बजरंगपुर में बैल दौड़ प्रतियोगिता है। चलो, तुम भी अपने बैल छन्नू  - मन्नू को वहां ले चलो।
श्रीकांत - अमित, बजरंगपुर में एक से एक बढ़ कर बैल आते हैं। छन्नू - मन्नू स्पर्धा हार जायेंगे। मेरी नाक कट जायेगी। मुझे बैलों को वहां नहीं ले जाना है।
(छन्नू - मन्नू कोठे में बंधे हैं। आवाज उन तक पहुंचती है)
छन्नू - (मन्नू से) मन्नू, हमारे मालिक को हम पर विश्वास नहीं है। हमें प्रतियोगिता में सम्मलित होने का अवसर तो मिले।
मन्नू - हां छन्नू, हम किसी से क्या कम है? हमें अवसर मिलेगा तो प्रतिद्वंद्वियों को परास्त करके ही दिखायेंगे।
(बैल जमीन को खुरचते हुए हुंकार भरते हैं। हुंकार की आवाज अमित और श्रीकांत के कानों तक पहुंचती है)
अमित - श्रीकांत, तुम्हारे बैल प्रतियोगिता में भाग लेने उतावले हैं और तुम पीछे हट रहे हो।
श्रीकांत - तुमने ठीक कहा अमित, चलो, छन्नू - मन्नू को भी इस प्रतियोगिता में ले ही जाता हूं। मैं बैलों को सजा लेता हूं। इनके सींग रंग देता हूं। इनके सींग में रंग - बिरंगे फीते एवं मयूर पंख बांध देता हूं। गले में घुंघरु और कौड़ियों की माला बांध देता हूं।
अमित - तुम ठीक कह रहे हो श्रीकांत, इससे बैलों की सुंदरता भी बढ़ जायेगी।
श्रीकांत - अमित, तुम तैयार हो कर आओ, फिर चलते हैं प्रतियोगिता स्थल की ओर ..।
अमित - ठीक है ... मैं तैयार होकर आता हूं।
(अमित, श्रीकांत के घर से निकल जाता है।)
श्रीकांत- (सुनंदा से) सुनंदा, थोड़ा जल्दी भोजन तैयार करना। आज छन्नू - मन्नू को नवागांव ले जाना है। वहां बैल दौड़ प्रतियोगिता है।
सुनंदा - ठीक है ...
दृष्य परिवर्तन
(प्रतियोगिता स्थल - वहां दर्शकों की भीड़ है। कई जोड़े बैल प्रतियोगिता में हिस्सा लेने लाये गये हैं। सभी बैलों को आकर्षक ढंग से सजाया गया है। लाउडीस्पीकर से बैल मालिकों के साथ बैल जोड़ियों के नामों की उद्घोषणा की जा रही है। बैल मालिक अपने बैल जोड़ी को लेकर मैदान में उतर रहे हैं। छन्नू - मन्नू के नामों की उद्घोषणा होते ही श्रीकांत बैलों को लेकर प्रतियोगिता मैदान में पहुंच गया। अब सभी प्रतियोगी बैल मैदान में उतर चुके हैं। सीटी बजती है और बैल मालिक अपने -अपने बैलों को दौड़ाने लगते हैं। दर्शक सीटियां एवं तालियां बजाते हैं।
छन्नू - मन्नू भी दौड़ रहे हैं। उनके साथ श्रीकांत भी कांसरा सम्हाले दौड़ रहा है। छन्नू  - मन्नू अन्य बैलों से बहुत पिछड़ गये हैं। श्रीकांत को उन बैलों पर गुस्सा आता है।)
श्रीकांत - (बैलों से झल्लाकर) अब तुम दोनों मेरी नाक कटवा कर ही रहोगे। यदि तुम्हें हारना ही था तो उत्साह क्यों दिखाया?
(मन्नू , छन्नू की ओर देखता है।)
मन्नू - (छन्नू से) छन्नू, हमारे मालिक तो निरुत्साहित हो रहे हैं। अब इसी मरघिन्नी चाल से दौड़ना है कि जोर पकड़ना है?
छन्नू - तुम ठीक कह रहे हो मन्नू। हमारे प्रतिद्वंद्वी बहुत डींग हांक रहे हैं। क्यों न अब इन्हें पछाड़ कर दिखा ही दे?
(छन्नू - मन्नू अपनी चाल बढ़ा देते हैं। वे जोर से दौड़ने लगते हैं। श्रीकांत भी उनके साथ दौड़ता है मगर श्रीकांत घसीटने लगता है। वह कांसरा छोड़ देता है। छन्नू - मन्नू अपने प्रतिद्वंदी को पिछाड़ते हुए आगे बढ़ जाते हैं। वे स्पर्धा में विजयी हो जाते हैं।
श्रीकांत घसीटाया था तो उसके हाथ - पैर छिल गये है। उसमें से रक्त बह रहा है। लेकिन श्रीकांत का ध्यान उधर नहीं जाता। वह बैलों के पास आता है। उनकी पीठ सहलाने लगता है। श्रीकांत के पास चिकित्सक आता है)
चिकित्सक - श्रीकांत, तुम्हें चोटें आ गयी हैं। उसमें दवाईयां लगवा लो।
श्रीकांत - (हंसकर) डाक्टर साहब, ये कोई खास चोंट नहीं है। फिर दवाई लगवाने का प्रश्र ही नहीं उठता।
अमित - (डाक्टर से) डाक्टर साहब , श्रीकांत को छन्नू - मन्नू पर अविश्वास था पर वे प्रथम पुरस्कार पा गये। इससे इसकी पीड़ा ही मिट गयी है। (श्रीकांत से) क्यों श्रीकांत, मैं ठीक कह रहा हूं न?
श्रीकांत - अमित, तुम तो ...?
अमित - बैलों ने प्रथम स्थान प्राप्त कर जीत हासिल की है तो इस खुशी में मिठाई खिलाओगे भी या नहीं?
श्रीकांत - क्यों नहीं, घर पहुंचने दो। तुम्हें छकते तक मिठाई खिलाऊंगा ...।
दृष्य परिवर्तन (दस वर्ष बाद)
(श्रीकांत आंगन में खाट पर बैठा है। पत्नी सुनंदा छपरी में बैठी है। आंगन के एक कोंटे में छन्नू  - मन्नू बंधे हैं। उनकी पसलियां चमड़े से ऊपर आ गयी हैं। आंखे धंस गयी है। अब छन्नू - मन्नू बूढ़े हो चुके हैं।)
(श्रीकांत के घर अरुण प्रवेश करता है। वह श्रीकांत के पास आता है)
श्रीकांत - (अरुण से) आओ अरुण, बैठो ...।
अरुण - (खाट पर बैठते हुए) श्रीकांत, अब छन्नू - मन्नू बूढ़े हो गये हैं।
श्रीकांत - हां अरुण, पहले ये बुलंद थे। पूरे दस वर्षों तक इन्होंने अथक परिश्रम किया हैं। अब इनमें खेती  - किसानी करने की क्षमता नहीं है। सोचता हूं - नये बैल खरीद लूं।
अरुण - श्रीकांत, अब छोड़ों बैलों के चक्कर, नया युग है तो टै्रक्टर खरीदो। उससे जुताई - मिसाई - ढुलाई सभी काम होते हैं।
श्रीकांत - तुम ठीक कहते हो अरुण। अब की बार ट्रैक्टर ही खरीदूंगा।
दृष्य परिवर्तन
(श्रीकांत का मकान - छन्नू - मन्नू कोठे में है। उनके सामने सूखी घास है। कोठे में गंदगी का साम्राज्य है। छन्नू - मन्नू के शरीर कीचड़ से सने हैं। उनकी पूंछ में मिट्टी का गोला बंध गया है। उनके शरीर में जुएं के छाते बन गये हैं। वहां मच्छर - मक्खियां भिनभिना रही हैं)
छन्नू -(मन्नू से) मित्र मन्नू, वे दिन कितने अच्छे थे जब हम युवा और जवान थे।
मन्नू - हां मित्र छन्नू, पर अब वे दिन सपने हो गये हैं। अब देखो न - मुझे '' तड़कफांस '' की बीमारी हो गयी है पर मालिक ध्यान ही नहीं देते। तीन दिन हो गये, कुछ खाया भी नहीं हूं।
छन्नू - हां, जब हम स्वस्थ और युवा थे तब चिकित्सक आता था। अब असक्त और बीमार हो गये हैं तो मालिक झांक भी नहीं रहे हैं।
मन्नू - दरअसल, अब हमारी उपयोगिता खत्म हो गयी है।
(आंगन में एक ट्रैक्टर खड़ी है। छन्नू - मन्नू उसे हिकारत की दृष्टि से देखते हैं)
मन्नू - जो खर्च हमारे दाना - पानी के लिए होता था वह ट्रैक्टर के डीजल के लिये हो रहा है। हमारी बीमारी दूर करने जो खर्च किया जाता था उससे मिस्त्री बुलाया जा रहा है जो मालिक दिन - रात हमारी सेवा करते थे वे ट्रैक्टर के पीछे दौड़ रहे हैं ...। मित्र, मेरी तबियत बहुत ही बिगड़ती जा रही है। मुझे छटपटाहट सी लग रही है।
(थोड़े समय बाद मन्नू छटपटाने लगता है। छन्नू , मन्नू को छटपटाता देख घबरा जाता है। वह दरवाजे के पास आता है फिर मन्नू के पास आता है फिर दरवाजे के पास जाता है। आंगन की ओर देखकर '' हम्मा - हम्मा '' चिल्लाता है। आवाज श्रीकांत तक पहुंचती है।)
श्रीकांत - (स्वयं से) क्या हो गया बैलों को, जरा देखूं तो ...।
(श्रीकांत कोठे की ओर आता है। मन्नू छटपटाते - छटपटाते शांत पड़ जाता है। श्रीकांत कोठे में आकर देखता है- मन्नू शांत पड़ा है। छन्नू उसे चांट रहा है। उसकी आंखों से अश्रु की धारा बह रही है।)
श्रीकांत - (सुनंदा से) सुनंदा, अरी ओ सुनंदा ...।
सुनंदा - (कोठे की ओर आती है)- क्यों गला फाड़ रहे हो?
श्रीकांत - सुनंदा, देखो तो मन्नू का प्राणांत हो गया लगता है।
सुनंदा - (मन्नू की ओर देखकर) वास्तव में मन्नू मर गया। जाओ, चार लोगों को बुला लाओ। मन्नू के शरीर को बाहर ले जाने के लिए ...।
श्रीकांत - तुम ठीक कहती हो। मैं अभी गया और अभी आया ...।
सुनंदा - मैं यहीं पर हूं ...
(थोड़ी देर बाद श्रीकांत चार पांच ग्रामीणों को लेकर आता है)
एक ग्रामीण - श्रीकांत, इसे तो '' गेड़ा '' लगाकर, घसीटकर ही निकालना पड़ेगा। दो मजबूत लकड़ी की व्यवस्था करो।
(सुनंदा दो लकड़ी लेकर आती है)
सुनंदा - इस लकड़ी से काम चल जायेगा न?
दूसरे ग्रामीण - हां - हां ...। (अन्य ग्रामीणों से) लो भाईयों, गेंड़ा फंसाओ ...।
(एक लकड़ी को मन्नू के सामने वाले भाग में तथा दूसरे लकड़ी को पीछे वाले भाग में फंसाकर, मन्नू को घसीटना शुरु करते हैं। ले देकर मन्नू को कोठे से बाहर निकाला जाता है।)
(जब मन्नू को निर्ममता पूर्वक घसीटा जाता है, दृष्य देखकर छन्नू की आंखों में आंसू आ जाते हैं।)
एक ग्रामीण - (श्रीकांत से)श्रीकांत, इसे 
ट्रैक्टर ट्राली में डाल कर ले जाना पड़ेगा ...।
श्रीकांत - सुनंदा, ट्रैक्टर की चाबी ले आओ, अरुण, लो चाबी, तुम्हीं ट्रैक्टर को चलाना ...।
(ग्रामीण मन्नू को ट्रैक्टर की ट्राली में खींच खांच कर डालते है। फिर टैक्टर से मन्नू के शव को बाहर की ओर ले जाया जाता है)
सूत्रधार - (अब कोठे में छन्नू अकेला है। मन्नू की मृत्यु से वह व्यथित है। उसे मन्नू के साथ व्यतीत किये क्षणों की याद आ रही है। वह बेचैनी से कभी उठता है। कभी बैठता है। कभी दरवाजे तक आता है। कभी कोठे के किसी कोंटे में विचलित खड़ा हो जाता है। वह कोठे में स्वयं से लड़ रहा था।
श्रीकांत वापस आता है। उसके हाथ में एक जोड़ा जूता है)
श्रीकांत - (सुनंदा को आवाज देता है) सुनंदा, तुम झंगलू को जानती हो न ? वह मन्नू का चमड़ा उतारेगा। उसके बदले मुझे ये जूते पहनने को मिले ...।
(छन्नू भी जूतों को देखता है।)
छन्नू - (स्वयं से) हम कितने भाग्यवान है कि मरने के बाद भी अपने मालिकों के पैरों में कांट न चुभे उसकी व्यवस्था कर जाते हैं।
दृष्य परिवर्तन
(दोपहर का समय- आंगन में डले खाट पर श्रीकांत बैठा है। पास ही जमीन पर सुनंदा बैठी है। बाहर कालू की आवाज आती है।)
कालू - लो, बूढ़े  - असक्त और अपंग जानवरों को बेच डालो ...।
(आवाज श्रीकांत एवं सुनंदा के कानों तक पहुंचती है।)
श्रीकांत - सुनंदा, लगता है कालू आया है। वह बूढ़े और असक्त जानवरों को खरीदता है। सोचता हूं - क्यों न छन्नू को बेच दूं।
सुनंदा - बेच ही डालो न। घर में पड़े - पड़े धन तो देगा नहीं । हां, पैरा - भूसा में व्यर्थ पैसा जाता रहेगा । पर मुझे एक बात समझ नहीं आती- ये कालू बूढ़े और असक्त जानवरों का करता क्या होगा?
श्रीकांत - तुम भी व्यर्थ की बात करती हो। वह क्या करता होगा, वह जाने, इससे हमें क्या लेना - देना ।
श्रीकांत (श्रीकांत, खाट से उतर कर बाहर की ओर जाता है। वह कालू को आवाज देता है)- कालू, ऐ कालू ...।
कालू - (श्रीकांत के) अभी आया ...। (श्रीकांत के पास आकर) बोलो, कैसे याद किया...।
श्रीकांत - मेरे पास एक बूढ़े बैल है। उसे बेचना है...।
कालू- चलो, देख लेता हूं।
(श्रीकांत के साथ कालू उसके घर आता है)
कालू - कहां है बैल ...?
श्रीकांत - कोठे में, (कोठे की ओर कदम बढ़ाते हुए) आओ न...।
(कालू, श्रीकांत के साथ कोठे में घुस जाता है। छन्नू मिट्टी से सने,मुंह लटकाये बैठा है)
कालू - अरे, इसके शरीर में तो किलो भर मांस नहीं है। चलो फिर भी एक हजार में खरीद ही लूंगा। समझो, लाश खरीद रहा हूं।
श्रीकांत - कालू, तुम पानी के मोल तो न मांगों ...।
कालू - दो सौ रुपये और सही ... इससे एक रुपये अधिक नहीं दूंगा ...।
श्रीकांत - कालू, पन्द्रह सौ देकर इस बला को तो ले ही जाओ ...।
कालू - (कालू, थैली से रुपये निकालता है। जबरदस्ती श्रीकांत के हाथ में थमा देता है) लो, चौदह सौ हैं, अब इससे और अधिक नहीं दे सकता ...।
श्रीकांत - (श्रीकांत रुपये ले लेता है।) चलो, ठीक है ...।
(कालू, छन्नू के निकट आता है। वह छन्नू की पसलियों में लाठियां बेधता है। छन्नू खड़ा हो जाता है। कालू उसे ढकेलकर कोठे से बाहर निकालने का प्रयास करता है। पर छन्नू कोठे से बाहर ही नहीं निकलता।
कालू एक मोटी रस्सी छन्नू के गले में बांध देता है। उसे खींचता है। रस्सी खींचने से छन्नू का गला कस जाता है। उसे पीड़ा होती है। छन्नू पुनः बैठ जाता है
श्रीकांत दृष्य देखता है। कालू की निर्दयता उसमें उथल - पुथल मचा देता है। उसमें विचार उठता है)
श्रीकांत - (स्वयं से) जब छन्नू युवा था तो मैंने इसकी खूब सेवा की। इसने अपने परिश्रम से मेरे सारे कर्ज छूट डाले। अब यह बूढ़ा और असक्त है तो मैं तिरस्कृत कर रहा हूं ... तो क्या डूबते सूरज को प्रणाम न करने की परम्परा को यथावत रहने दे ? नहीं - नहीं, स्वार्थ की भी सीमा होना चाहिए ...।
(कालू, छन्नू को मारने लाठी उठाता है। लाठी छन्नू पर गिराने होता है कि श्रीकांत उसे रोकता है)
श्रीकांत - कालू ...।
(कालू का हाथ ऊपर ही रुक जाता है। वह छन्नू पर प्रहार करने के बदले हाथ नीचे कर लेता है। श्रीकांत उसकी ओर रुपये बढ़ा देता है)
श्रीकांत - कालू, तुम ये रुपये रखो, मुझे छन्नू को नहीं बेचना है ...।
(कालू रुपये लेते हुए श्रीकांत के चेहरे को आश्चर्य से देखते रह जाता है।)
 
गली नं 5, एकता चौंक 
ममता नगर, राजनांदगांव (छ:ग)

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