गुरुवार, 7 जनवरी 2016

आक्रोश

बादल की टुकड़ियों को देखकर विश्राम तिलमिला रहा था.मानसून के आगमन की खबर फैली और एक बारिस हुई भी.फिर बारिस थमी तो बरसने का ही नाम नहीं ले रही थी.इधर किसान खेत में हल चला चुके थे.बीज छींच चुके थे.बीज अंकुरित होने के बजाय सड़ने लगे थे.अकाल की स्थिति बनती जा रही थी.उधर देश की सीमा पर लड़ाई चल रही थी.घुंसपैठियों को खदेड़ने लगे थे रंणबांकुरे.इन चिन्ताओं से दूर देश के राजनेता चुनाव की तैयारी में लगे थे.
विश्राम का दिमाग सोच-सोच कर सातवें आसमान पर चढ़ा जा रहा था .खींझन इतनी थी कि उसके मुृंह से अनायस गालियां निकल पड़ती-स्साले हरामी के पिल्लों को चुनाव की पड़ी है.अब बनाएंगे अकाल और सीमा पर चल रही लड़ाई को चुनावी मुद्दा.इन नौंटकी बाजों का बिगड़ता भी क्या है ? देश की जनता की भावनाओं से खेलना ही एक मात्र कार्य है इन हरामखोरों का.हानि सहते हैं किसान.भूख सहते हैं इनके बच्चें.राष्ट्र को बचाने शहीद होते हैॅ सीमा पर डंटे सैनिक.उजड़ती हैं मांग उनकी पत्नियों की.उनके माता पिता को पुत्र खोना पड़ता है.पिता के हाथ का साया उठता है तो उनके बच्चे के सिर से.इन सफेदपोशों का क्या? शहीद के परिवार जन से मिल कर दो शब्द संवेदना के कह देंगे.मगरमच्छ के आंसू बहा देंगे और कर्म का इतिश्री. खटमल बन राष्ट्र का खून चूसने के अलावा और कर ही क्या रहें है देश के नेता?
विश्राम की अकुलाहट बढ़ती जा रही थी.उसकी नजर कभी आकाश की ओर दौड़ती तो कभी टेलीविजन पर जिसमें देश की सीमा पर हो रही लड़ाई को दिखाया जा रहा था.उसकी छटपटाहट बढ़ती जा रही थी.विद्रोह का मन बनता जा रहा था.वह स्वयं से लड़ रहा था कि उसकी पत्नी सुषमा आयी.बोली-कल रामधन आया था.कह रहा था-उसको उसकी मजदूरी चाहिए.वह बाहर कमाने-खाने जायेगा.
विश्राम ने ध्यान से पत्नी की बातें सुनी.उसके ओंठों पर मुस्कान तैर आयी.उस मुस्कान में कड़वाहट थी.वह बड़बड़ाया-स्साले लूच्चे-लंफगे और करेंगे भी क्या! पेट भरने शहर जायेगा और खपाएगा शरीर.यहां लंगोटी लगाकर रहेगा.शहर की हवा लगी कि टेकनी उतरता नहीं कुल्हे से . ... उसके विचार में परिवर्तन आया-समय की धारा के साथ न बहना भी समझदारी नहीं.ठीक ही है.यहां रह कर करेगा भी क्या! शहर जायेगा,रोजी-रोटी के साथ कुछ विकास भी तो करेगा.यहां भूख काटने को दौड़ेगी.कर्ज चढ़ेगा.चोरी चकारी की प्रवृत्ति बढ़ेगी.उसने सुषमा से कहा-तो उसे उसकी मजदूरी दे देनी थी.
-खेत का काम अधूरा पड़ा है.मजदूरी पाते ही वह शहर भाग जायेगा.कौन करेगा अधूरा काम ?
पत्नी के कथन में दम था .पर इसमें स्वार्थ भी लिप्त था.पत्नी के स्वार्थपन पर फिर एक बार विश्राम के मस्तिष्क में विचार कौंधा-स्वार्थी बन गई है सुषमा.अपने काम पूरा करने का आस दूसरे से क्यों ? हमारी इसी कमजोरी का ही तो फायदा उठाया जाता है.ऊंगली करता है और शेर के मांिनंद पंजा मारता है.खेत हमारा है इसकी देखरेख की जिम्मेदारी हमारी बनती है.इसे क्यों किसी दूसरे के कंधे पर डाले? क्या इतना कमजोर पड़ गया है खेतिहारों के कंधे ? मजदूर मेहनत करते हैं.मजदूरी से जीवन चलाते हैं.क्या उनकी मेहनताना रोकना मानवता है ? नहीं..नहीं..। उसने पत्नी से कहा- वह शहर जाये या और कहीं जाये.हमें क्या.उसने पूरी ईमानदारी और लगन के साथ काम किया है.उसे उसकी मजदूरी दे देनी थी.खेत का काम साधने का ठेका तो वह लिया नहीं है.
पत्नी चुपचाप चली गई.विश्राम घर से निकल खेत की ओर चल पड़ा.दूर से खेतों को देख कर उसका मन कुलबुलाने लगा.उसके मस्तिष्क में चिड़चिड़ाहट पैदा होने लगी.खेत की मेड़ पर पैर पड़े.नजर खेत में दौड़ी.जोंते-बोये खेतों की मिट्टी सूख चुकी थी.वह खेत के भीतर घुसा. एक मिट्टी का चीड़ा(टुकड़ा) उठाया.उसे हाथ से मसला.मिट्टी ऐसे मसल गयी मानो,सूखी रेत हो.उसने कुनमुनाया-इस बार भी अकाल सिर पर मंडरायेगा. कर्ज चढ़ेगा.खेती बिकेगी.हम किसानों से अच्छा तो उन मजदूरों के दिन कटते हैं.खेत में अन्न उपजे न उपजे उन्हें मजदूरी देनी ही पड़ती है.यहां अकाल पड़ा नहीं कि पलायन करने उतावले हो जाते हैं.शहर में मजदूरी कर जीवनयापन कर लेते है.हम मात्र पचास-सौ एकड़ जमीन होने की शेखी बघारते रह जाते हैं.हाथ क्या खाक लगता है.बाहर जाने का भी नाम नहीं ले पाते.झूठे लिबास ओढ़े,बड़े होने का दम भरते हैं.चार जानवर बांध कर बहाना बना देते हैं-बिना मुँह के जानवर को किसके भरोसा छोड़कर जाये ? मूक जानवरों पर दोषारोपण कर देते हैं.छिः कितनी घृणित मानसिकता है हमारी.
विश्राम अब पल भर वहां ठहरने के पक्ष मे नहीं था.खेतों की दुर्दशा ने उसके मन को झकझोर कर रख दिया.उसने एक बार टुकड़ियों में बिखरे बादल को देंखा.उसके मन में बादल के प्रति नफरत पैदा होने लगी.गुजरे वर्ष भी बादल घुमड़कर आते.बारिस किधर होती थी पता ही नहीं चलता था.परिणाम खेत में डाले गये बीज खेत में ही जल गए.पिछले वर्ष के अकाल की मार से उबर नहीं पाया था और इस साल भी अकाल सिर पर मंडरा रहा था.
विश्राम वापस बस्ती की ओर चल पड़ा.बस्ती में पहुंचकर देखा- मनहरण के घर के सामने भीड़ इक्ठ्ठी है.उसने डाकिया को लौटते देखा था.वह जानता था-मनहरण का इकलौता बेटा सेना में भर्ती है.उसकी भी ड्यूटी उसी क्षेत्र में लगी है,जहां गोली-बारुद चल रही है.उसके भीतर एक अज्ञात आशंका सिपचने लगी.उसकी चाल बढ़ गयी.उसे रोने की आवाज सुनाई देने लगी.वह समझ गया कि कुछ तो गड़बड़ है.वह नजदीक गया.वहां स्पष्ट हो गया कि मनहरण का इकलौता देश के लिए शहीद हो गया.मनहरण सिर पीट-पीट कर रो रहा था.विश्राम के पास उसे हमदर्दी के दो शब्द कहने के अलावा और कुछ नहीं था.
देश की सीमा की रक्षा करते हुए मनहरण का पुत्र शहीद हो गया,यह चर्चा कुछ दिनों तक रही फिर धीरे धीरे लोग भूलने लगे और एक दिन ऐसा अवसर आया कि सब भूल ही गए.
चुनाव सन्निकट था.अकाल ने अपन तेवर दिखा दिया था.अकाल की विभीषिका से बचने अधिकांश लोग गांव छोड़ चुके थे.रह गए थे तो विश्राम जैसे किसान.गांव सूना पड़ गया था.खेत सांय-सांय करने लगी थी.गांव के सूनापन को भंग करती तो चुनाव में लगी गाड़ियां.लाउडिस्पीकरों की आवाजें.
उस दिन विश्राम छपरी में खाट डाले लेटा था.पत्नी समीप बैठी चांवल साफ कर रही थी.गांव के चौराहे पर लाउडस्पीकरों से आवाज गूंज रही थी.विश्राम जानता था-आज दो प्रतिद्वंदी आपस मे टकरायेंगे.दोनो नेताओ के लिए दो राजनीतिक दलों मे बंटे ग्रामीण अलग-अलग मंच बना रखे थे.नेताओ ंके आगमन होते ही लाउडिस्पीकरों से उनके आगमन की खबर फैलाने का काम शुरु हो गया.आवाज विश्राम के कान तक पहुंची.उसने उधर ही कान दे दिया. आए नेता भाषण ठोंक रहा था-बार-बार चुनाव का भार जनता पर पड़ती है.दुख की बात है कि कुर्सी हथियाने के फिराक में सरकार गिरा दी जाती है.चुनाव की स्थिति निर्मित कर दी जाती है.यह वह नेता था जिसकी सरकार थी और वह गिर गयी थी.विपक्ष के नेता की आवाज आयी-आज देश में विदेशी शक्तियां काबिज होती जा रही है.देश की सीमा रक्षा करने हमारे जवान अपनी जान की बाजियां लगा रहें हैं.इस गांव की मिट्टी ने भी एक जवान ऐसा दिया जिसने अपनी धरती मां की लाज रखने अपनी जान दे दी.यदि हमारी सरकार रहती तो यह दिन देखने नहीं मिलता.
विश्राम एक-एक शब्द को गांठ मे बांध रहा था.शहीद के नाम पर नेता वोट बटोरने भाषण ठोंक रहा था और विश्राम के तन बदन में आग लग रही थी .वह खाट से उठा और पटाव की ओर बढ़ा.पत्नी सूपा चलाना भूल,विश्राम की ओर देखने लगी.विश्राम पटाव से नीचे आया तो उसके हाथ में वह लाठी थी जिसे उसने वर्षों पूर्व पकने के लिए रख दिया था.लाठी पक कर काली और वजनदार हो गई थी.विश्राम का चेहरा क्रोध से फनफना रहा था.पत्नी अवाक थी.उसने साहस एकत्रित कर पूछा- लाठी लेकर तुम किधर चले ।
विश्राम ने पत्नी पर एक नजर डाली .उसकी आंखों से क्रोध झलक रहा था.कहा- मंच पर जो राजनीतिक रोटी सेंक रहे हैं उन्हें इस लाठी का कमाल दिखाने...।
विश्राम जिधर से आवाज उभर रही थी उधर बढ़ गया....।

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