गुरुवार, 24 दिसंबर 2015

चरण

सुरेश सर्वेद
 
ता नहीं चरण को क्या हो गया था कि सुबह से ही सिर पर हाथ देकर आंगन में बैठ जाता. मास्टरनी चिल्लाई - झुंझलाई पर चरण पर कोई असर नहीं पड़ा. मास्टर , मास्टरनी पर बिफरा. मास्टरनी चुप होने के बजाय और चिल्लाने लगी -न मालूम किस जनम का बदला ले रहा यह निकम्मा. अरे, तुम मुझ पर क्यों नाराज होते हो. अगर भड़कना ही है तो भड़को अपने सिर चढ़ाये नौकर पर तब जानूंगी सचमुच तुम सत्य के लिए लड़ते हो. इसे हुआ ही क्या है ? ठीक तो दिखता है .
- तुम चुप होती हो कि नहीं, बुढ़ापा आ गया है बेचारे का. शरीर थक गया होगा. . . ।
- हां. . हां. . . , तुम तो ब्रम्हृा लगते हो. ऐसी बात कर रहे हो मानो सब समझ गये. आ गया होगा बुढ़ापा बेचारे का. . . . ।
जब बातचीत जोर पकड़ने लगती तब मास्टर की आठ वर्षीय बिटिया चरण के हाथ को पकड़कर बाहर ले जाती. वह अबोध बालिका क्या - क्या सोचती रही होगी, अपनी मां के बारे में. जरुर बुरा ही सोचती होगी. उस बालिका की आत्मा में आशंका सिपचती होगी - चरण को मार न दे. . . ?
आज भी मास्टरनी चिल्लाती रही. मास्टर हताश हो टहलने निकल गया. चरण को लेकर मुनियां बाहर चली गई. पाकगृह में प्रवेश करते ही मास्टरनी का क्रोध दुगुना हो गया. वह भभक उठी - चरण ने लकड़ी नहीं काटी है. किसे जलाकर खाना बनाऊंगी. ठीक है, मास्टरजी उसके पक्ष में बोलते हैं. पता लग जायेगा जब खाना नहीं मिलेगा. . . ।
मास्टरनी की सारी आशाएं व्यर्थ गयी. मास्टर आ कर तैयार होकर स्कूल चला गया. मास्टरनी उल्टी गंगा बहती देखकर भीतर ही भीतर जलकर राख हो गयी. वह स्वयं से कुड़ गयी. लकड़ी धम्म से आंगन में पटक काटने लग गयी. पर परेशानी के सिवा कुछ हासिल नहीं कर सकी.
ठक् - ठक् की आवाज सुनकर चरण भीतर आया. मास्टरनी लकड़ी काटती वैसी ही झुकी रही. उसने यह दिखाने का प्रयास किया कि उसे चरण के आने की कोई खबर ही नहीं. चरण उसी पैर वापस हो गया. तब मास्टरनी लकड़ी काटना छोड़कर जाते हुए चरण को देखती रही. चरण धीरे - धीरे कमान की तरह शरीर लिए निकल गया था.
वापस आया तो चरण के हाथ में फटी लकड़ियां थीं. उन्हें मास्टरनी से कुछ दूर जमीन पर रख दिया. मास्टरनी पसीना पोंछती रह गयी. हंफरने लग गयी पर लकड़ी कटी नहीं थी. चरण बाहर निकल कर दरवाजे के बाजू में बने चौरे पर जाकर बैठ गया सिर पर हाथ देकर.
दोपहर खाना खाने की छुट्टी हुई. दो बज गये थे. मुनिया आकर उससे लिपट गयी. चरण चिंता मग्न था. मुनिया के अचानक आकर लिपटने से एक बार उसका अशक्त शरीर ने अपना संयम तोड़ दिया. वह सम्हलते - सम्हलते सम्हल पाया. उसने मुनियां को अपनी गोद में ले लिया.
मास्टर आकर चरण के पास कुछ पल ठहर गया. फिर घर के अंदर प्रवेश किया. मास्टरनी का क्रोध शांत हो चुका था. मास्टर ने आवाज दी - खाना - खुराक देना है कि नहीं श्रीमती जी. . . ?
पाकगृह से निकलती हुई मास्टरनी ने कहा - क्यों नहीं. . । अरे, मुनियां कहां है,वह नहीं आयी ?
-बाहर है. . । मास्टर ने कहा.
- बाहर. . . ! किसके साथ है ?
- तुम जाकर देख सकती हो.
मास्टरनी ने बाहर आकर देखा - चरण उकड़ू बैठा था. मुनियां उसकी गोद में बैठी उसकी दाढ़ी को छूकर कह रही थी - बाबा. . . बाबा, ये बाल क्यों उगते हैं ?तुम रोज - रोज नहीं काटते. पापा तो रोज सुबह काटते हैं ?
चरण धीरे - धीरे कहने लगा - मुझे कहां जाना होता है बिटिया कि रोज - रोज दाढ़ी बनाऊं. ये क्यों उगते है. . यह तो आदिमकाल से बढ़ती आ रही है. इसे समूल नष्ट करना असंभव है. अगर बाल नहीं उगेंगे. नाखून नहीं बढ़ेंगे तो पशुता ही खत्म हो जायेगी. यही तो प्रमाण है कि आज भी पशुता जीवित है. . . ।
- मुन्नी. . . । मास्टरनी ने धीरे से आवाज दी. चरण की गोद पर पड़े ही पड़े मुनिया ने मम्मी की ओर देखा. मास्टरनी चरण के समीप आकर बोली - क्यों चरण, कसम खा ली है क्या,यहां से नहीं उठने की. भीतर जाने का विचार नहीं है क्या ?
- नहीं मास्टरनी बाई, मैं क्यों कसम खाने लगा. जहां उमर बीत गई वहां जाने के लिए . चल मुनियां बेटी.
चरण की गोद से मुनिया उठ खड़ी हुई. चरण धरती को थेम कर उठा. धीरे - धीरे पग बढ़ाकर घर में प्रवेश किया. छपरी में पहुंच कर मास्टर से थोड़ी दूर में बैठ गया. मास्टरनी मास्टर को पाकगृह से खाना लाकर दिया. उसने देखा - चरण अपने भोजन करने के स्थान पर न बैठकर दूर बैठा है. उसने कहा - क्यों चरण, वहां क्यों बैठा है. भोजन नहीं करना है क्या ? क्या सोचता रहता है दिन भर. हू. . . चल इधर आ. . . ।
चरण अपने भोजन करने के स्थान पर जा बैठा. उसके सामने मास्टरनी ने भोजन की थाली और लोटा भर पानी ला कर रखा. चरण ने लोटा उठाया और गटागट पानी पी गया फिर भोजन करना शुरु किया.
कुछ दिनों से मास्टरनी परखती आ रही थी - चरण के हर कार्य को. वह धीरे - धीरे खाने लगा था. वह भी एक ही परोसा खा कर उठ जाता था. पहले तो यूं खाना खाता कि समय ही नहीं लगता था वह भी दो - तीन बार ले - लेकर. मास्टरनी चरण को परखने की खूब कोशिश करती. वह जानना चाहती थी कि चरण को आखिर हुआ क्या है. क्यों खाना टूट गया है. क्यों स्मरण शक्ति क्षीण होती जा रही है. मगर उसकी जिज्ञासा पूरी नहीं हो पा रही थी. वह चाह कर भी चरण से कुछ नहीं पूछ पाती थी.
मास्टरनी को इतना समझ तो आ गया था कि उम्र ढलने के साथ चरण का शरीर शिकस्त हो चुका है. पर वह अक्सर तब चीखने - चिल्लाने लगती जबकि उसका काम अधूरा रह जाता. उस पर एक काम का बोझ और आ जाता. . . . ।
संध्या हो चुकी थी. गायें वापस आ रही थी. गायों के गले में बंधी घंटियां टन् - टन् बज रही थी. चरण आंगन में बैठा था. मास्टर छपरी में बैठा अखबार पढ़ रहा था. मुनियां पुस्तक के पन्ने उलट - पलट कर चित्र देख रही थी. मास्टरनी ने कोठे को झांककर देखा -वहां जानवरों के लिए घास नहीं डली थी. फिर क्या था वह तमतमा गई . वह चरण पर बिफर पड़ी - चरण तुम दिनोंदिन क्यों लापरवाह बनते जा रहे हो. अगर जानवर भूखे मरेंगे तो पाप हमें लगेगा, तुम्हें क्या है. अगर तुमसे कोई काम नहीं हो पाता तो हमसे क्यों नहीं कह देते. हम कर लेते. . . . ।
चरण निर्विकार बैठा रहा. मास्टरनी, मास्टर पर सवार हो गई - और तुम जो हो यह सब होते हुए चुप्पी साधे देखते रहते हो. मैं कल मायका चली जाती हूं. रोज - रोज के झंझट में मैं पड़ना नहीं चाहती. तुम सम्हालना अपना घर और नौकर.
मास्टर चरण के पास आया. कहा - क्यों चरण, आखिर बात क्या है. काम क्यों नहीं करते. रोज सुबह शाम ये विवाद क्यों. . . ।
- मुझे लगता है मास्टरजी मेरी मति फिरती जा रही है.
- तुम्हारी मति नहीं फिर रही है. एक दिन इस झंझट में मेरी मति जरुर फिर जायेगी. मुझे तो लगता है - अब तुम मुफ्त की रोटियां तोड़ना चाहते हो. . . ।
चरण ने कभी सोचा भी नहीं था कि मास्टर उसके लिए कभी ऐसे शब्द का भी प्रयोग कर सकता है. मुनियां को लगा - विवाद बढ़ने को आमादा है. वह चरण के पास आ उसे उठाने लगा कि मास्टर ने मुनिया को अपनी ओर खींचा. कहा - खबरदार, आज के बाद चरण के पास गया तो. . . चरण चलो उठो और अब यहां से चलता करो. बर्दाश्त की भी हद होती. तुमने तो सारी सीमाएं ही लांघ दिया है. . . ।
चरण को कुछ समझ नहीं आ रहा था. मास्टर ने आगे कहना जारी रखा - तुम उठते हो कि उठाकर बाहर फेंकू. . . . ।
चरण सकपका गया. पर उसने हिम्मत नहीं हारी अशक्त शरीर को उठाने का प्रयास करते हुए सशक्त जुबान से कहा - नहीं मास्टर, नहीं. मुझे उठाकर फेंकने की जरुरत नहीं. मेरा नाम चरण है और मेरे चरण में इतनी शक्ति है कि वह चल सकती है. . . ।
- खूब बोलने लगे हो चरण. . . ।
- समय है मास्टर. . . समय आदमी को गूंगा और वाचाल बना देता है. . . . ।
मास्टर का क्रोध फनफना गया. उसने चरण को एक लात मार दी . चरण उठ रहा था मगर लात पड़ते ही वह लड़खड़ाकर फिर से गिर गया. चरण की आंखें छलछला आयी. उसकी आंखें तो तब भी नम नहीं हुई थी जब उसका इकलौता पुत्र देश की सेवा में शहीद हो गया था. चरण ने कहा - अब मुझे सब समझ आ गया मास्टर लोग आम खाने से मतलब रखते हैं और गुठलियां फेंक देते हैं.
इतना कह चरण उठा और चलता बना.
मुनियां पलंग पर गिरकर सुबकने लगी.
रात होने लगी. चरण लौटा नहीं. मास्टर पलंग पर करवटें बदलने लगा. नींद आंखों से दूर चली गयी थी. उसे चरण के शब्द बार - बार सुनाई दे रहे थे - समय के सब साथी. . सबसे बड़ा वक्त है. लोगों को आम के रस से मतलब होता है, गुठलियों से नहीं. . . . . ।
सचमुच में चरण पथ प्रदर्शक का काम बखूबी करता था. उसके ही अनुभव ने मुझे आज हर चीज दी. एक मात्र पुत्र था उसका. वह देश को न्यौछार हो गया. तब भी चरण ने रोया नहीं. कहता फिरता रहा - यदि मेरा दस पुत्र होते तो देश की सेवा में लगा देता. . . । चरण ने मुझे अपना पुत्र के समान ही माना. . . पर मैंने क्या किया उसके साथ ? अभद्रता, अव्यवहार. . . नहीं ,नहीं मुझे ऐसा नहीं करना था. . . . ।
इसी उधेड़ बुन में मास्टर की आंख लग गयी.
सुबह हो चुकी थी. चरण रात भर नहीं लौटा. मास्टर के मन में आशंका सिपचने लगी - अब चरण गांव के लोगों को लेकर आयेगा. मेरे विरुद्ध पंचायत जुड़ेगी. लोग मुझे भला बुरा कहेंगे. मेरे व्यवहार पर थूकेंगे. . .
समय सरकता जा रहा था मास्टर का मन विचलित होते जा रहा था. दस बजने को जा रहा था पर मास्टर अब तक स्नान नहीं किया था. उसकी पत्नी ने कहा - क्यों जी, आज नहीं नहाना है क्या ? स्कूल नहीं जाना है क्या ? ठंड अधिक लग रही है क्या ?
सचमुच आज ठंड कुछ अधिक ही थी. पूस महीना जो ठहरा. कुछ क्षण मास्टर दुसाले में दुबका पड़ा रहा फिर अचानक उठा और दरवाजे की ओर बढ़ा. मास्टरनी ने कहा - कहां जा रहे हो. . . . ?
- मैं चरण को देखने जा रहा हूं. वह रात भर नहीं आया. पता नहीं कहां होगा. किस हाल में होगा. . . ।
-मगर. . . ।
- मगर वगर कुछ नहीं. . . . ।
और चरण अपने घर से निकल गया. जैसे ही उसने बाहर कदम रखा कि देखा - चरण को उठाये कुछ लोग खड़े हैं. मास्टर दौड़कर उन लोगों के पास गया. वे लोग चरण को लेकर भीतर आये. मास्टर ने उन लोगों से पूछा - क्या हुआ चरण को. . . ।
वे लोग चरण को नीचे लिटा दिए. एक ने कहा -मास्टर जी, यह मुनियां - मुनियां कह रहा था. हमने आवाज सुनकर इसके पास गये. इसका शरीर ठंड से कांप रहा था. कुछ ही देर बाद इसके मुंह से आवाज निकलना बंद हो गया और शरीर की हरकत भी रुक गयी. लगता है - कल रात की ठंड यह सह नहीं सका. . . ।
मास्टर सन्न रह गया. उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें क्या न करे. . . उसे आत्मग्लानि हो रही थी कि उसे ऐसा नहीं करना था पर समय सरक चुका था और चरण का मृत देह उसकी आंगन में पड़ा था. मास्टर की आंखें भर आयी. वह चरण के मृतदेह से लिपटकर कहना चाहता था - कितनी ठंड लगी होगी चरण तुम्हें, इतनी ठंड तो नहीं लगी होगी न जितनी तेरे जाने के बाद से मुझे लगने लगी है. तेरी आत्मा तो नहीं कांपी होगी न ! देख, मेरी आत्मा कल से कांप रही है. . . . क्या तू कभी लौटकर नहीं आयेगा. . . क्या मेरा चरण सदैव के लिए मुझसे बिछड़ गया. . . ?
पर मास्टर कुछ नहीं कह सका. मास्टरनी अहिल्यारुपी शिलाखंड बन गयी. मुनियां दूर खड़ी सुबकती रही. . . सुबकती रही. . . ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें